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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
प्रमोद और माध्यस्थ्य भावना को हृदय से निकाल देने के लिए नहीं। वस्तुतः यह निषेध भिन्न समनोज्ञ या असमनोज्ञ के साथ राग, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, विरोध, वैर, भेदभाव आदि बढ़ाने के लिए नहीं किया गया है, यह तो सिर्फ अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निष्ठा में शैथिल्य आने से बचाने के उद्देश्य से है। आगे चलकर तो समाधिकरण की साधना में अपने समनोज्ञ साधर्मिक मुनि से भी सेवा लेने का निषेध किया गया है, वह भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र में दृढ़ता के लिए है। इसी सूत्र १९९ की पंक्ति में 'परं आढायमाणे' पद दिया गया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अत्यन्त आदर के साथ नहीं, किन्तु कम आदर के साथ अर्थात् आपवादिक स्थिति में समनोज्ञ साधु को आहारादि दिया जा सकता है। इसमें संसर्ग या सम्पर्क बढ़ाने की दृष्टि का निषेध होते हुए वात्सल्य एवं सेवा-भावना का अवकाश सूचित होता है। शास्त्र में विपरीत (मिथ्या) दृष्टि के साथ संस्तव, अतिपरिचय, प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा-प्रदान को रत्नत्रय साधना दूषित करने का कारण बताया गया है। २ अतः 'परं आदर' शब्द सम्पर्क-निषेध का वाचक समझना चाहिए।
'धुवं चेतं जाणेज्जा' आदि पाठ सूत्र का उत्तरार्ध है। पूर्वार्ध में आहारादि देने का निषेध करके इसमें असमनोज्ञ साधुओं से आहारादि लेने का निषेध किया है, यह सर्वथा निषेध है । तथाकथित असमनोज्ञ-अन्यतीर्थिक भिक्षुओं की ओर से किस-किस प्रकार से साधु को प्रलोभन, आदरभाव, विश्वास आदि से बहकाया, फुसलाया और फँसाया जाता है, यह इस सूत्रपाठ में बताया गया है। अपरिपक्व साधक बहक जाता है, फिसल जाता है। इसलिए शास्त्रकार ने पहले ही मोर्चे पर उनकी बात का आदर न करने, उपेक्षा-सेवन करने का निर्देश किया है। ३ असमनोज्ञ आचार-विचार-विमोक्ष
२००. इहमेगेसिं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति । ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा - हण पाणे घातमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा, अदुवा अदिनमाइयंति, अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा - अस्थि लोए, णत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, सादिए लोए, अणादिए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपजवसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा पावए ति वा, साधू ति वा असाधू ति वा, सिद्धी ति वा असिद्धी ति वा, निरए ति वा अनिरए ति वा । जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा । एत्थ वि जाणह अकस्मात् ।
२००. इस मनुष्य लोक में कई साधकों को आचार-गोचर (शास्त्र-विहित आचरण) सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु-जीवन में (वचन-पाचन आदि सावध क्रियाओं द्वारा) आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले (अन्यमतीय भिक्षुओं) के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं । वे स्वयं प्राणिवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते
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आचारांग, पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी म० कृत टीका अ०८, उ०१ के विवेचन पर से पृष्ठ ५४१ (क) तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी कृत विवेचन अ०७, सू० १८, पृ० १८४ (ख) आवश्यक सूत्र का सम्यक्त्व सूत्र (ग) आचा० शीला० टीका पत्रांक २६५ आचा० शीला० टीका पाक २६५ 'हण पाणे घातमाणा' के बदले चूर्णि में पाठान्तर है - 'हणपाणघातमाणा।' अर्थ किया है - 'सयं हणंति एगिंदियाती, घातमाणा रंधावेमाणा- अर्थात् - स्वयं एकेन्द्रियादि प्राणियों का हनन करते हैं तथा प्राणियों का माँस पकवाते हैं,- इस प्रकार प्राणिघात करवाते हैं।'