________________
अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १११
कहता हो या (रास्ते में) चलते हुए कहता हो, अथवा उपाश्रय में आकर या मार्ग में चलते हुए वह अशन-पान आदि देता हो, उनके लिए निमंत्रित (मनुहार) करता हो, या (किसी प्रकार का) वैयावृत्य करता हो, तो मुनि उसकी बात का बिल्कुल अनादर (उपेक्षा) करता हुआ (चुप रहे)।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - समनोज्ञ-असमनोज्ञ - ये दोनों शब्द श्रमण भगवान् महावीर के धर्मशासन के साधु-साध्वियों के लिए साधनाकाल में दूसरे के साथ सम्बन्ध रखने व न रखने में विधि-निषेध के लिए प्रयुक्त हैं। समनोज्ञ उसे कहते हैं - जिसका अनुमोदन दर्शन से, वेष से और समाचारी से किया जा सके और असमनोज्ञ उसे कहते हैं - जिसका अनुमोदन दृष्टि से, वेष से और समाचारी से न किया जा सके। एक जैनश्रम के लिए दूसरा जैनश्रमण समनोज्ञ होता है, जबकि अन्य धर्म-सम्प्रदायानुयायी साधु असमनोज्ञ । समनोज्ञ के भी मुख्यतया चार विकल्प होते हैं -
(१) जिनके दर्शन (श्रद्धा-प्ररूपणा) में थोड़ा-सा अन्तर हो, वेष में जरा-सा अन्तर हो, समाचारी में भी कई बातों में अन्तर हो।
(२) जिनके दर्शन और वेश में अन्तर न हो, परन्तु समाचारी में अन्तर हो।
(३) जिनके दर्शन, वेष और समाचारी, तीनों में कोई अन्तर न हो किन्तु आहारादि सांभोगिक व्यवहार न हो, और .
(४) जिनके दर्शन, वेष और समाचारी तीनों में कोई अन्तर न हो तथा जिनके साथ आहारादि सांभोगिक व्यवहार भी हो।
इन चारों विकल्पों में पूर्ण समनोज्ञ तो चौथे विकल्प वाला होता है । प्रायः सम आचार वाले के साथ सांभोगिक व्यवहार सम्बन्ध रखा जाता है, जिसका आचार सम न हो, उसके साथ नहीं। वृत्तिकार ने 'समणुण्ण' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'समनोज्ञ' करके उसका अर्थ किया है - जो दर्शन से और वेष से सम हो, किन्तु भोजनादि व्यवहार से नहीं। २ साधर्मिक (समान धर्मा) तो मुनि भी हो सकते हैं, गृहस्थ भी। यहाँ - मुनि साधर्मिक ही विवक्षित है। मुनि अपने साधर्मिक समनोज्ञ को ही आहारादि ले-दे सकता है, किन्तु एक आचार होने पर भी जो शिथिल आचार वाले पार्श्वस्थ, कुशील, अपच्छंद, अपसन्न आदि हों, उन्हें मुनि आदरपूर्वक आहारादि नहीं ले-दे सकता। निशीथसूत्र में इसका स्पष्ट वर्णन मिलता है। ३ असमनोज्ञ के लिए शास्त्रों में 'अन्यतीर्थिक' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। 'णो पाएज्जा' आदि तीन निषेधात्मक वाक्यों में प्रयुक्त 'णो' शब्द सर्वथा निषेध अर्थ में है। कदाचित ऐसा समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधु अत्यन्त रुग्ण, असहाय, अशक्त, ग्लान या संकटग्रस्त या एकाकी आदि हो तो आपवादिक रूप से ऐसे साधु को भी आहारादि दिया-लिया जा सकता है, उसे निमन्त्रित भी किया जा सकता है और उसकी सेवा भी की जा सकती है। वास्तव में तो संसर्ग-जनित भी दोष से बचने के लिए ही ऐसा निषेध किया गये है। मैत्री, करुणा,
समनोज्ञ या समनुज्ञ के निम्नोक्त अर्थशास्त्रों में किये गये हैं - (१) एक समाचारी-प्रतिबद्ध (औपपातिक, आचारांग, व्यवहार) (२) सांभोगिक (निशीथ चू०५ उ० ३।३),(३) चारित्रवति संविग्ने (आचा० १,८।२ उ०), (४) अनुमोदनकर्ता (आचा० १।१।१।५), (५) अनुमोदित (आचा०वृ० पाइअसद्द०), आचा० शीला टीका पत्रांक २६४ निशीथ अध्ययन २। ४४, तथा निशीथ अध्ययन १५। ७६-७७ ..
२..
३.