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(यह भी) देख ! संयम से भ्रष्ट होने वाले कई मुनि उत्कृष्ट आचार वालों के बीच शिथिलाचारी, (संयम के प्रति) नत/समर्पित मुनियों के बीच (संयम के प्रति) असमर्पित (सावद्य प्रवृत्ति - परायण), विरत मुनियों के बीच अविरत तथा (चारित्रसम्पन्न) साधुओं के बीच ( चारित्रहीनं) होते हैं।
१९५. (इस प्रकार संयम भ्रष्ट साधकों तथा संयम भ्रष्टता के परिणामों को) निकट से भली-भाँति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ ( कृतार्थ) वीर मुनि सदा आगम ( - में विहित साधनापथ) के अनुसार (संयम में) पराक्रम करे ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
१९४. उनमें से कुछ साधकों की श्लाघारूप कीर्ति पाप रूप हो जाती है; (बदनामी का रूप धारण कर लेती ." यह श्रमण विभ्रान्त ( श्रमण धर्म से भटक गया) है, यह श्रमण विभ्रान्त है । "
विवेचन - पिछले सूत्रों में श्रुत आदि के मद से उन्मत्त श्रमण की मानसिक एवं वाचिक हीन वृत्तियों का निदर्शन कराया गया है । सूत्रकार ने बड़ी मनौवैज्ञानिक पकड़ से उसके चिन्तन और कथन की अपवृत्तियों का स्पष्टीकरण किया है। अब इन अगले चार सूत्रों में उसकी अनियन्त्रित कायिक चेष्टाओं का वर्णन कर गौरव - त्याग की व्याख्या है।
'अणुवयमाणे' - यह उस अविनीत, गर्वस्फीत और गौरवत्रय से ग्रस्त उच्छृंखल साधक का विशेषण है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है - (गुरु आदि उसे शिक्षा देते हैं -) तू गौरवत्रय से अनुबद्ध होकर पचन - पाचनादि क्रियाओं में प्रवृत्त है और उनमें जो गृहस्थ प्रवृत्त हैं, उनके समक्ष तू कहता हैं - 'इसमें क्या दोष है ? शरीर रहित होकर कोई भी धर्म नहीं पाल सकता। इसलिए धर्म के आधारभूत शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए ।' ऐसा अधर्मयुक्त कथन करने वाला आचारहीन साधक है । १
'वितद्दे' - ' वितर्द' शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं (१) विविध प्रकार से हिंसक, (२) संयमघातक शत्रु या संयम के प्रतिकूल । चूर्णिकार ने इसके दो रूप प्रस्तुत किए हैं - वितड्ड और वितंड । जो विविध प्रकार से हिंसक हो वह वितड्ड और जो वितंडावादी हो वह वितंड ।
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२.
'उप्पइए पडिवतमाणे' - इस पद में उन साधकों की दशा का चित्रण है, जो पहले तो वीर वृत्ति से स्वजन, ज्ञातिजन, परिग्रह आदि को छोड़ कर विरक्त भाव दिखाते हुए प्रव्रजित होते हैं, एक बार तो वे अहिंसक, दान्त और सुव्रती बन कर लोगों को अत्यन्त प्रभावित कर देते हैं, परन्तु बाद में जब उनकी प्रसिद्धि और प्रशंसा अधिक होने लगती है, पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, उन्हें सुख-सुविधाएँ भी अधिक मिलने लगती हैं, खान-पान भी स्वादिष्ट, गरिष्ठ मिलता है, चारों ओर मानव - मेदिनी का जमघट और ठाठ-बाट लगा रहता है, तब वे इन्द्रिय सुखों की ओर झुक जाते हैं, उनका शरीर भी सुकुमार बन जाता है, तब वे संयम में पराक्रम की अपेक्षा से दीन-हीन और तीनों गौरवों के दास बन जाते हैं। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- 'उठकर पुनः गिरते हुए साधकों को तू देख । ३"
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आचा० शीला० टीका पत्रांक २२८
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २२८
(ख) आचारांग चूर्णि - आचा० मूल पाठ सूत्र १९२ की टिप्पणी
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२९ के आधार पर