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________________ षष्ठ अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र १९६ २०९ 'समणविन्भंते' - यह उस साधक के लिए कहा गया है, जो श्रमण होकर आरंभार्थी, इन्द्रिय-विषय-कषायों से पीड़ित, कायर एवं व्रत-विध्वंसक हो गए हैं। यह श्रमण होकर विविध प्रकार से भ्रान्त हो गया-भटक गया है श्रमणधर्म से । चूर्णिकार ने पाठ स्वीकार किया है - 'समणवितंते'। उसका अर्थ फलित होता है - जिसके श्रमणत्व में विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) हैं, उसे श्रमण-वितन्त या श्रमण-वितंत्र कहते हैं। . 'दवितेहिं' - द्रव्यिक वह है, जिसके पास द्रव्य हो। द्रव्य का अर्थ धन होता है, साधु के पास ज्ञानादि रत्नत्रय रूप धन होता है, अथवा द्रव्य का अर्थ भव्य है - मुक्तिगमन योग्य है। २ द्रविक का अर्थ दयालु भी होता है। "णिट्ठियढे' - का अर्थ निष्ठितार्थ - कृतार्थ होता है। जो आत्मतृप्त हो, वही कृतार्थ हो सकता है । आत्मतृप्त वही हो सकता है, जिसकी विषय-सुखों की पिपासा सर्वथा बुझ गयी हो। इसलिए वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है - "विषयसुख-निष्पिपासः निष्ठितार्थ।' ३ इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में गौरव-त्याग की इन विविध प्रेरणाओं पर साधक को दत्तचित्त होकर भौतिक पिपासाओं से मुक्त होने की शिक्षा दी गयी है। ॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त पञ्चम उद्देसओ पंचम उद्देशक तितिक्षु-धूत का धर्म कथन १९६. से गिहेसु गिहतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा णगरेसु वा णगरंतरेसु वा जणवएसु वा १. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २३० (ख) आचारांग चूर्णि आचा० मूल पाठ टिप्पणी १९४. आचारांग चूर्णि - आचा० मूल पाठ टिप्पणी सूत्र १९४ ३. आचा० शीला० टीका पत्रांक २३० पूर्णिसम्मत पाठान्तर और उसका अर्थ देखिए - 'गामंतरंतु गामतो गामाणं वा अंतरं गामंतरं पंथो उप्पहोवा। एवं नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जाव रायहाणीसुवा रायहाणिअंतरेसुवा।' एत्थ सण्णिगासो कायव्वो अत्थतो, तं जहा - गामस्स य नगरस्स य अंतये, एवं गामस्स खेडस्स य अंतरे, जाव गामस्स रायहाणीए य, एवं एकेकं छद्दे तेणं जाव अपच्छिमे रायहाणीए य। एवं एकेक तेसु जुहद्दिद्वेसु ठाणेसु जणवयंतरेसु वा" इस विवेचन के अनुसार चूर्णिसम्मत पाठान्तर है - 'गामंतरेसु वा खेडेसुवा खेडंतरेसु वा कब्बडेसुवा कब्बडंतरेसु वा मडंबेसु वा मडंबंतरेसु वा दोणमुहेसु वा दोणमुहंतरेसु वा पट्टणेसु वा पट्टणंतरेसु वा आगरेसु वा आगरंतरेसु वा आसमेसु वा आसमंतरेसु वा संवाहेसु वा संवाहंतरेसु वा रायहाणीसु वा रायहाणिअंतरेसु वा (जणवएसु वा) जणवयंतरेसु वा'। अर्थात् - ग्राम और नगर के बीच में ग्राम और खेड़ के बीच में यावत् ग्राम और राजधानी तक। इसी प्रकार उन यथोद्दिष्ट स्थानों में से एक-एक बीच में डालना चाहिए - जणवयंतरेसु वा तक। तब पाठ इस प्रकार होगा जो कि ऊपर बताया गया है। चूर्णिसम्मत पाठ यही प्रतीत होता है।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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