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________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १९२-१९५ २०७ बाल का निकृष्टाचरण १९२. अधम्मट्ठी तुमं सि णाम बाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे, हणमाणे, घातमाणे, हणतो यावि समणुजाणमाणे। घोरे धम्मे उदीरिते । उवेहति णं अणाणाए। एस विसण्णे वितद्दे । वियाहिते त्ति बेमि। १९३. किमणेण भो जणेण करिस्सामि त्ति मण्णमाणा एवं पेगे वदित्ता मातरं पितरं हेच्चा णातओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वता दंता । पस्स दीणे उप्पइए पडिवतामाणे। वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति। १९४. अहेमेगेसिं सिलोए पावए भवति - से समणविन्भंते । ३ समणविन्भंते। पासहेगे समण्णागतेहिं असमण्णागए णममाणेहि अणममाणे विरतेहिं अविरते दवितेहिं अदविते। १९५. अभिसमेच्चा पंडिते मेहावी णिट्ठियढे वीरे आगमेणं सदा परिक्कमेजासि त्ति बेमि । ॥चउत्थो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ १९२. (धर्म से पतित होने वाले अहंकारी साधक को आचार्यादि इस प्रकार अनुशासित करते हैं -) तू अधर्मार्थी है, बाल - (अज्ञ) है, आरम्भार्थी है, (आरम्भकर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है -) प्राणियों का हनन करो - (अथवा तू स्वयं प्राणिघात करता है); दूसरों से प्राणिवध कराता है और प्राणियों का वध करने वाले का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान् ने) घोर (संवर-निर्जरारूप दुष्कर-) धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है। वह (अधर्मार्थी तथा धर्म की उपेक्षा करने वाला) विषण्ण (काम-भोगों की कीचड़ में लिप्त) और वितर्द (हिंसक) कहा गया है। - ऐसा मैं कहता हूँ। १९३. ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का (या मनोज्ञ भोजनादि का) मैं क्या करूँगा? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित/प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। (हे शिष्य ! पराक्रम की दृष्टि से) दीन और (पहले सिंह की भांति प्रव्रजित होकर अब) पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक हो जाते हैं। १. 'वितद्दे' के बदले पाठान्तरं मिलते हैं - 'वितड्डे, वितंडे' निरर्थक विवाद वितंडा कहलाता है। वितंडा करने वाले को वितंड कहते हैं। वितडु शब्द का अर्थ चूर्णिकार ने किया है - विविहं तड्डो...वितड्डो।" - विविध प्रकार के तर्द (हिंसा के प्रकार) वितड्ड हैं। इसके बदले नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर इस प्रकार है - 'समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू अविहिंसगा सुव्वता दंता परदत्तभोइणो पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए।' - हम मुनिधर्म के लिए समुत्थित होकर अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अप्रसू, (मातृविहीन) अविहिंसक, सुव्रत, दान्त, परदत्त - भोजी श्रमण बनेंगे, पापकर्म नहीं करेंगे।" चूर्णि में इसके बदले 'समणवितते समणवितंते' पाठ स्वीकार करके अर्थ किया है - 'विविहं तंतो वितंतो, समणत्तणेण विविहं तंतो जं भणितं उपप्पवतति' - अर्थात् - विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) वितंत है। जिसके श्रमणत्व में विविध तंत्र (प्रपंच) हैं, वह श्रमणवितंत या श्रमण-वितंत्र है।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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