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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध . 'णाणब्भट्ठा दंसणलूसिणो' - ज्ञानभ्रष्ट और सम्यग्दर्शन के विध्वंसक इन दोनों प्रकार के लक्षणों से युक्त साधक बहुत खतरनाक होते हैं। वे स्वयं तो चारित्र से भ्रष्ट होते ही हैं, अन्य साधकों को भी अपने दूषण का चेप लगाते हैं, उन्हें भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं। उनसे सावधान रहने की सूचना यहाँ दी गयी है।
__'णममाणा०' - कुछ साधक ऐसे होते हैं, जो गुरुजनों, तीर्थंकरों तथा उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति विनीत होते हैं, हर समय वे दबकर, झुककर, नमकर चलते हैं, कई बार वे अपने दोषों को छिपाने या अपराधों के प्रकट हो जाने पर प्रायश्चित्त या दण्ड अधिक न दे दें, इस अभिप्राय से गुरुजनों तथा अन्य साधुओं की प्रशंसा, चापलूसी एवं वन्दना करते रहते हैं। पर यह सब होता है - गौरव त्रिपुटी के चक्कर में पड़कर कर्मोदयवश संयमी जीवन को बिगाड़ लेने के कारण । इसलिए उनकी नमन आदि क्रियाएँ केवल द्रव्य से होती हैं भाव से नहीं।
'पुट्ठा वेगे णियटृति' - कुछ साधक इन्हीं तीन गौरवों से प्रतिबद्ध होते हैं, असंयमी जीवन-सुख-सुविधापूर्वक जिन्दगी के कारण से। किन्तु ज्यों ही परीषहों का आगमन होता है, त्यों ही वे कायर बनकर संयम से भाग खड़े होते हैं, संयमी वेश भी छोड़ बैठते हैं।
_ 'अधे संभवता विद्दायमाणा' - कुछ साधक संयम के स्थानों से नीचे गिर जाते हैं, अथवा अविद्या के कारण अधःपतन के पथ पर विद्यमान होते हैं, स्वयं अल्पज्ञानयुक्त होते हुए भी हम विद्वान् हैं ', इस प्रकार से अपनी मिथ्या श्लाघा (प्रशंसा) करते रहते हैं । तात्पर्य यह है कि थोड़ा-बहुत जानता हुआ भी ऐसा साधक गर्वोन्नत होकर अपनी डींग हांकता रहता है कि 'मैं बहुश्रुत हूँ, आचार्य को जितना शास्त्रज्ञान है, उतना तो मैंने अल्प समय में ही पढ़ लिया था। इतना ही नहीं, वह जो साधक उसकी अभिमान भरी बात सुनकर मध्यस्थ या मौन बने रहते हैं, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाते, अथवा बहुश्रुत होने के कारण जो राग-द्वेष और अशान्ति से दूर रहते हैं, उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते हैं। उनमें से किसी के द्वारा किसी गलती के विषय में जरा-सा इशारा करने पर वह भड़क उठता है - पहले अपने कृत्य-अकृत्य को जान लो, तब दूसरों को उपदेश देना। २ ' 'पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं' - गर्वस्फीत साधक उद्यत होकर कठोर शब्द ही नहीं बोलता, वह अन्य दो उपाय भी उन सुविहित मध्यस्थ साधकों को दबाने या लोगों की दृष्टि में गिराने के लिए अपनाता है - (१) उस साधु के पूर्वाश्रम के किसी कर्म (धंधे या दुश्चरण) को लेकर कहना - तू तो वही लकडहारा है न? अथवा त वही चोर है न ? (२) अथवा उसकी किसी अंग-विकलता को लेकर मुँह मचकोड़ना आदि व्यर्थ चेष्टाएं करते हुए अवज्ञा करना। ३
चूर्णिकार ने इनके अतिरिक्त एक और अर्थ की कल्पना की है - कत्थन, वर्द्धन और मर्दन - ये तीनों एकार्थक हैं। अतथ्य - (मिथ्या) शब्दों से आत्मश्लाघा करना या छोटी-सी बात को बढ़ाकर कहना या बार-बार एक ही बात को कहते रहना।। १. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २२८ (ख) "जो जत्थ होइ भग्गो,ओवासं सोपरं अविंदंतो।
गतुं तत्थऽचयंतो इमं पहाणं घोसेति ॥" २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२८ ३. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२८ ४. आचा० चूर्णि मूल पाठ सूत्र १९१ का टिप्पण