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षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १९०-१९१
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'सत्थारमेव परुसं वदंति' - इस पंक्ति के दो अर्थ वृत्तिकार ने सूचित किये हैं -
(१) आचार्यादि द्वारा शास्त्राभिप्रायपूर्वक प्रेरित किए जाने पर भी उस शास्ता को ही कठोर बोलने लगते हैं'आप इस विषय में कुछ नहीं जानते । मैं जितना सूत्रों का अर्थ, शब्द-शास्त्र, गणित या निमित्त (ज्योतिष) जानता हूँ, उस प्रकार से उतना दूसरा कौन जानता है ?' इस प्रकार आचार्यादि शास्ता की अवज्ञा करता हुआ वह तीखे शब्द कह डालता है।
(२) अथवा शास्ता का अर्थ शासनाधीश तीर्थंकर आदि भी होता है। अतः यह अर्थ भी सम्भव है कि शास्ता अर्थात् तीर्थंकर आदि के लिए भी कठोर शब्द कह देते हैं । शास्त्र के अर्थ करने में या आचरण में कहीं भूल हो जाने पर आचार्यादि द्वारा प्रेरित किए जाने पर वे कह देते हैं - तीर्थंकर इससे अधिक क्या कहेंगे ? वे हमारा गला काटने से बढ़कर क्या कहेंगे? इस प्रकार शास्त्रकारों के सम्बन्ध में भी वे मिथ्या बकवास कर देते हैं।'
दोहरी मूर्खता - तीन प्रकार के गौरव के चक्कर में पड़े हुए ऐसे साधक पहली मूर्खता तो यह करते हैं कि भगवद्-उपदिष्ट विनय आदि या क्षमा, मार्दव आदि मुनिधर्म के उन्नत पथ को छोड़कर सुविधावादी बन जाते हैं, अपनी सुख-सुविधा, मिथ्या प्रतिष्ठा एवं अल्पज्ञता के आधार पर आसान रास्ते पर चलने लगते हैं, जब कोई गुरुजन रोक-टोक करते हैं, तो कठोर शब्दों में उनका प्रतिवाद करते हैं। फिर दूसरी मूर्खता यह करते हैं कि जो शीलवान् उपशान्त और सम्यक् प्रज्ञापूर्वक संयम में पराक्रम कर रहे हैं, उन पर कुशीलवान् होने का दोषारोपण करते हैं । अथवा उनके पीछे लोगों के समक्ष 'कुशील' कहकर उनकी निन्दा करते हैं।
इस पद का अन्य नय से यह अर्थ भी होता है - स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हो गया, यह एक मूर्खता है, दूसरी मूर्खता है - उत्कृष्ट संयमपालकों की निन्दा या बदनामी करना।
तीसरे नय से यह अर्थ भी हो सकता है - किसी ने ऐसे साधकों के समक्ष कहा कि 'ये बड़े शीलवान् हैं, उपशान्त हैं, तब उसकी बात का खण्डन करते हुए कहना कि इतने सारे उपकरण रखने वाले इन लोगों में कहाँ शीलवत्ता है या उपशान्तता है ? यह उस निन्दक एवं हीनाचारी की मूर्खता है। २१
_ 'णियट्टमाणा०' - कुछ साधक सातागौरव-वश सुख-सुविधावादी बन कर मुनिधर्म के मौलिक संयम-पथ से या संयमी वेष से भी निवृत्त हो जाते हैं, फिर भी वे विनय को नहीं छोड़ते, न ही किसी साधु पर दोषारोपण करते हैं, न कठोर बोलते हैं, अर्थात् वे गर्वस्फीत होकर दोहरी मूर्खता नहीं करते। वे अपने आचार में दम्भ, दिखावा नहीं करते, न ही झूठा बहाना बनाकर अपवाद का सेवन करते हैं, किन्तु सरल एवं स्पष्ट हृदय से कहते हैं - 'मुनि धर्म का मौलिक आचार तो ऐसा है, किन्तु हम उतना पालन करने में असमर्थ हैं। वे यों नहीं कहते कि 'हम जैसा पालन करते हैं, वैसा ही साध्वाचार है। इस समय दुःषम-काल के प्रभाव से बल, वीर्य आदि के ह्रास के कारण मध्यम मार्ग (मध्यम आचरण) ही श्रेयस्कर है, उत्कृष्ट आचरण का अवसर नहीं है । जैसे सारथी घोड़ों की लगाम न तो अधिक खींचता है और न ही ढीली छोड़ता है, ऐसा करने से घोड़े ठीक चलते हैं, इसी प्रकार का (मुनियों का आचार रूप) योग सर्वत्र प्रशस्त होता है। ३'
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