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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
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प्रकार कुछ अक्षरों को दुराग्रहपूर्वक पकड़कर वह ज्ञानलव - दुर्विग्ध व्यक्ति महान् उपशम के कारण भूत ज्ञान को भी विपरीत रूप देकर अपनी उद्धतता प्रकट करता हुआ कठोर वचन बोलता है । १
'आणं तं णोत्ति मण्णमाणा' - कुछ साधक ज्ञान-समृद्धि के गर्व के अतिरिक्त साता (सुख) के काल्पनिक गौरव की तरंगों में बहकर गुरुजनों के सान्निध्य में वर्षों रहकर भी उनके द्वारा अनुशासित किये जाने पर तपाक से उनकी आज्ञा को ठुकरा देते हैं और कह बैठते हैं - ' शायद यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है। 'णो' शब्द यहाँ आंशिक निषेध के अर्थ में प्रयुक्त है। इसलिए 'शायद' शब्द वाक्य के आदि में लगाया गया है। अथवा साता - गौरव की कंल्पना में बहकर साधक अपवाद सूत्रों का आश्रय लेकर चल पड़ता है, जब आचार्य उन्हें उत्सर्ग सूत्रानुसार • चलने के लिए प्रेरित करते हैं तो वे कह देते हैं - 'यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है।' वस्तुतः ऐसे साधक शारीरिक सुख तलाश में अपवाद मार्ग का आश्रय लेते हैं। २
की
'समणुण्णा जीविस्सामो' - गुरुजनों द्वारा अविनय - आशातना और चारित्र भ्रष्टता के दुष्परिणाम बताये जाने पर वे चुपचाप सुन-समझ लेते हैं, लेकिन उस पर आचरण करने की अपेक्षा वे गुरुजनों के समक्ष केवल संकल्प भर कर लेते हैं कि 'हम उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे।' आशय यह है कि वे आश्वासन देते हैं कि 'हम आपके मनोज्ञ - मनोनुकूल होकर जीएंगे।' यह एक अर्थ है। दूसरा वैकल्पिक अर्थ यह भी है - 'हम समनोज्ञ- लोकसम्मत होकर जीएंगे।' जनता में प्रतिष्ठा पाना और अपना प्रभाव लोगों पर डालना यह यहाँ 'लोकसम्मत' होने का अर्थ है । इस लिए मंत्र, यंत्र, तंत्र, ज्योतिष, व्याकरण, अंगस्फुरण आदि शास्त्रों का अध्ययन करके लोक-प्रतिष्ठित होकर जीना ही वे अपने साधु-जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं। गुरुजनों द्वारा कही बातों को कानों से सुनकर, जरा-सा सोचकर रह जाते
हैं ।
४
जो साधक ऋद्धि-गौरव, रस
गौरव - दोषों से ग्रस्त साधक' (पंचेन्द्रिय - विषय - रस) गौरव और साता-गौरव, इन तीनों गौरव दोषों के शिकार बन जाते हैं, वे निम्नोक्त दुर्गुणों से घिर जाते हैं - (१) रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग पर चलने के संकल्प के प्रति वे सच्चे नहीं रहते ।
(२) शब्दादि काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त
जाते हैं।
(३) तीनों गौरवों को पाने के लिए अहर्निश लालायित रहते हैं।
(४) तीर्थंकरों द्वारा कथित समाधि (इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण) का सेवन - आचरण नहीं करते । (५) ईर्ष्या, द्वेष, कषाय आदि से जलते रहते हैं ।
(६) शास्ता (आचार्यादि) द्वारा शास्त्रवचन प्रस्तुत करके अनुशासित किये जाने पर कठोर वचन बोलते हैं। · चूर्णिकार 'कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा' का अर्थ करते हैं - शब्दादि कार्यों में गृद्ध अधिकाधिक ग्रस्त ।
आसक्त एवं
१.
२.
३.
४.
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २२६ के अनुसार
(ख) “अन्यैः स्वेच्छारचितान् अर्थ-विशेषान् श्रमेण विज्ञाय ।
कृत्स्नं वाङ्मयमित इति खादत्यंगानि दर्पेण ॥"
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२६
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२७ के आधार पर
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२७
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- ( उद्धृत) - आचा० शीला० टीका पत्रांक २२६