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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध "लाघवं आगममणो'.- मुनि परिषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से अविचल होकर क्यों सहन करे? इससे उसे क्या लाभ है ? इसी शंका के समाधान के रूप में शास्त्रकार उपर्युक्त पंक्ति प्रस्तुत करते हैं ? लाघव का अर्थ यहाँ लघुता या हीनता नहीं है, अपितु लघु (भार में हलका) का भाव लाघव' यहाँ विवक्षित है। वह दो प्रकार से होता है - द्रव्य से और भाव से। द्रव्य के उपकरण - लाघव और भाव से कर्मलाघव । इन दोनों प्रकार से लाघव समझ कर मुनि परिषहों तथा उपसर्गों को सहन करे। इस सम्बन्ध में नागार्जुन-सम्मत जो पाठ है, उसके अनुसार अर्थ होता है - 'इस प्रकार उपकरण-लाघव से कर्मक्षयजनक तप हो जाता है। साथ ही परिषह-सहन के समय तृणादिस्पर्श या शीत-उष्ण, दंश-मशक आदि स्पर्शों को सहने से कायक्लेश रूप तप होता है।
तमेवं...समभिजाणिया - यह पंक्ति लाघवधूत का हृदय है। जिस प्रकार से भगवान् महावीर ने पूर्व में जो कुछ आदेश-उपदेश (उपकरण-लाघव, आहार-लाघव आदि के सम्बन्ध में) दिया है, उसे उसी प्रकार से सम्यक् रूप में जानकर - कैसे जानकर ? सर्वतः सर्वात्मना - वृत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण किया है - सर्वतः यानी द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से। द्रव्यतः - आहार, उपकरण आदि के विषय में, क्षेत्रतः - ग्राम, नगर आदि में, कालतः - दिन, रात, दुर्भिक्ष आदि समय में सर्वात्मना, भावतः - मन में कृत्रिमता, कपट, वंचकता आदि छोड़कर। २
सम्मत्तं ३ – सम्यक्त्व के अर्थ हैं - प्रशस्त, शोभन, एक या संगत तत्त्व। इस प्रकार के सम्यक्त्व को सम्यक् प्रकार से, निकट से जाने । अथवा समत्तं का समत्वं रूप हो तो, तब वाक्यार्थ होगा - इस प्रकार के समत्व-समभाव को सर्वतः सर्वात्मना प्रशस्त भावपूर्वक जानता हुआ या जानकर (आराधक होता है)। आचारांगचूर्णि में ये दोनों अर्थ किये गये हैं। ' तात्पर्य यह है कि उपकरण-लाघव आदि में भी समभाव रहे, दूसरे साधकों के पास अपने से न्यूनाधिक उपकरणादि देखकर उनके प्रति घृणा, द्वेष, तेजोद्वेष, प्रतिस्पर्धा, रागभाव, अवज्ञा आदि मन में न आवे, यही समत्व को सम्यक् जानना है । इसी शास्त्र में बताया गया है - जो साधक तीन वस्त्र युक्त, दो वस्त्र युक्त, एक वस्त्र युक्त या वस्त्ररहित रहता है, वह परस्पर एक दूसरे की अवज्ञा. निन्दा.घणा न करे, क्योंकि ये सभी जिनाज्ञा में हैं। वस्त्रादि के सम्बन्ध में समान आचार नहीं होता, उसका कारण साधकों का अपना-अपना संहनन, धृति, सहनशक्ति आदि हैं, इसलिए साधक अपने से विभिन्न आचार वाले साधु को देखकर उसकी अवज्ञा न करे, न ही अपने को हीन १. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २२२ (ख) आचारांगचूर्णि में नागार्जुन-सम्मत पाठ और व्याख्या।
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२२ आचारांगवृत्ति में सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द विषयक श्लोक - "प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः संगत एव च। इत्यैतेरूपसृष्टस्तु भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥" देखिये, आचारांग मूलपाठ के पादटिप्पण में पृ० ६४ जोऽवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते हीलंति परं, सव्वेऽपि य ते जिणाणाए ॥१॥ जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइआदि कारणं पप्प । णऽव मन्नइ, ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥२॥ सव्वेऽपि जिणाणाए जहाविहिं कम्म-खणण-अट्ठाए। विहरंति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एव ॥३॥
- आचा० शीला०-टीका पत्रांक २२२