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षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देशक: सूत्र ९८७ - १८८
आदान शब्द का एक अर्थ ज्ञानादि भी है, जो तीर्थंकरों की ओर से विशेष रूप से सर्वतोमुखी दान है। तात्पर्य यह है कि आदान का अर्थ, आज्ञा, उपदेश या सर्वतोमुखी ज्ञानादि का दान करने पर सारे वाक्य का अर्थ होगा - हे मुने ! विधूत के आचार में तथा सु-आख्यात धर्म में सदा तीर्थंकरों की यह (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) आज्ञा, उपदेश या दान है, जिसे तुम्हें भलीभाँति पालन सेवन करना चाहिए। आदान का अर्थ कर्म या वस्त्रादि उपकरण करने पर अर्थ होगा - स्वाख्यात धर्मा और विधूतकल्प मुनि इस (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) कर्म या कर्मों के उपादान रूप वस्त्रादि का सदा क्षय या परित्याग करे । १
णिज्जोसइत्ता के भी विभिन्न अर्थ फलित होते हैं। नियत या निश्चित (कर्म या पूर्वोक्त स्वजन, उपकरण आदि का) त्याग करके। जुष् धातु प्रीति पूर्वक सेवन अर्थ में प्रयुक्त होता है, वहाँ णिज्झोसइत्ता का अर्थ होंगा - जो कुछ पहले (परिषहादि सहन, स्वजनत्याग आदि के सम्बन्ध में) कहा गया है, उस नियत या निश्चित उपदेश या वचन का मुनि सेवन - पालन या स्पर्शन करे ।
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'जे अचेले परिवुसिते' - इस पंक्ति में 'अचेले' शब्द का अर्थ विचारणीय है। अचेल के दो अर्थ मुख्यतया होते हैं अवस्त्र और अल्पवस्त्र । नञ् समास दोनों प्रकार का होता - निषेधार्थक और अल्पार्थक । निषेधार्थक अचेल शब्द जंगल में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि का विशेषण है और अल्पार्थक अचेल शब्द स्थविरकल्पी मुनि के लिए प्रयुक्त होता है, जो संघ में रहकर साधना करते हैं। दोनों प्रकार के मुनियों को साधक अवस्था में कुछ धर्मोपकरण रखने पड़ते हैं। यह बात दूसरी है कि उपकरणों की संख्या में अन्तर होता है। जंगलों में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनियों के लिए शास्त्र में मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण ही विहित हैं । इन उपकरणों में भी कमी की जा सकती है। अल्पतम उपकरणों से काम चलाना कर्म-निर्जराजनक अवर्मोदर्य (ऊनोदरी) तप है । किन्तु दोनों कोटि के मुनियों को वस्त्रादि उपकरण रखते हुए भी उनके सम्बन्ध में विशेष चिन्ता, आसक्ति या उनके वियोग में आर्तध्यान या उद्विग्नता नहीं होनी चाहिए। कदाचित् वस्त्र फट जाए या समय पर शुद्ध - ऐषणिक वस्त्र न मिले, तो भी उसके लिए विशेष चिन्ता या आर्तध्यान- रौद्रध्यान नहीं होना चाहिए। अगर आर्त- रौद्रध्यान होगा या चिन्ता होगी तो उसकी विधूत साधना खण्डित हो जायेगी। कर्मधूत की साधना तभी होगी, जब एक ओर स्वेच्छा से व अत्यन्त अल्प वस्त्रादि उपकरण रखने का संकल्प करेगा, दूसरी ओर अल्प वस्त्रादि होते हुए भी आने वाले परीषहों (रति- अरति, शीत, तृष्णस्पर्श, दंशमशक आदि) को समभावूपर्वक सहेगा, मन में किसी प्रकार की उद्विग्नता, क्षोभ, चंचलता या अपध्यान नहीं आने देगा। अचेल मुनि को किस-किस प्रकार की चिन्ता, उद्विग्नता या अपध्यायमग्नता नहीं होनी चाहिए ? इस सम्बन्ध में विविध विकल्प परिजुण्णे मे वत्थे से लेकर 'दंसमसगफासा फुसंति' तक की पंक्तियों में प्रस्तुत किये हैं। 'परिवुसिते' शब्द से दोनों कोटि के मुनियों का हर हालत में सदैव संयम में रहना सूचित किया गया है। यही इस सूत्र का आशय है । ५
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आचारांग चूर्णि आचा० मूल पाठ टिप्पण पृ० ६३
आचारांग चूर्णि आचा० मूल पाठ टिप्पण पृ० ६३
जैसे अज्ञ का अर्थ अल्पज्ञ है न कि ज्ञान- शून्य, वैसे ही यहाँ 'अचेल' का अर्थ अल्पचेल (अल्प वस्त्र वाला) भी होता है।
- आचा० शीला० टीका पत्रांक २२१
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२१
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२१