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________________ १९६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध जो भिक्षु अचेलक रहता है, उस भिक्षु को ऐसी चिन्ता (विकल्प) उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूँगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे (डोरे) की याचना करूँगा, फिर सूई की याचना करूँगा, फिर उस वस्त्र को साँधूंगा, उसे सीऊँगा, छोटा है, इसलिए दूसरा टुकड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊँगा, बड़ा है, इसलिए फाड़कर छोटा बनाऊँगा, फिर उसे पहनूँगा और शरीर को ढकूँगा। अथवा अचेलत्व-साधना में पराक्रम करते हुए निर्वस्त्र मुनि को बार-बार तिनकों (घास के तृणों) का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तथा डाँस तथा मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। अचेलक मुनि उनमें से एक या दूसरे, नाना प्रकार के स्पर्शों (परीषहों) को (समभाव से) सहन करे। अपने आपको लाघवयुक्त (द्रव्य और भाव से हलका) जानता हुआ वह अचेलक एवं तितिक्षु भिक्षु तप (उपकरण-ऊनोदरी एवं कायक्लेश तप) से सम्पन्न होता है। भगवान् ने जिस रूप में अचेलत्व का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में जान-समझकर, सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व/सत्व जाने अथवा समत्व का सेवन करे। जीवन के पूर्व भाग में प्रवजित होकर चिरकाल तक (जीवनपर्यन्त) संयम में विचरण करने वाले, चारित्रसम्पन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान् वीर साधुओं ने जो (परीषहादि) सहन किये हैं, उसे तू देख। १८८. प्रज्ञावान् मुनियों की भुजाएं कृश (दुर्बल) होती हैं, (तपस्या से तथा परीषह सहन से) उनके शरीर में रक्त-मांस बहुत कम हो जाते हैं। संसार-वृद्धि की राग-द्वेष-कषायरूप श्रेणी - संतति को (समत्व की) प्रज्ञा से जानकर (क्षमा, सहिष्णुता आदि से) छिन्न-भिन्न करके वह मुनि (संसार-समुद्र से) तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - पिछले उद्देशक में कर्म-धूनन के संदर्भ में स्नेह-त्याग तथा सहिष्णुता का निर्देश किया गया था, सहिष्णुता की साधना के लिए ज्ञानपूर्वक देह-दमन, इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है। वस्त्र आदि उपकरणों की अल्पता भी अनिवार्य है। इसलिए तप, संयम, परीषह सहन आदि से उसे शरीर और कषाय को कृश करके लाघवअल्पीकरण का अभ्यास करना चाहिए। धूतवाद के संदर्भ में देह-धूनन करने का उत्तम मार्ग इस उद्देशक में बताया गया है। 'एवं खु मुणी आदाणं' - यह वाक्य बहुत ही गम्भीर है। इसमें से अनेक अर्थ फलित होते हैं। वृत्तिकार ने 'आदान' शब्द के दो अर्थ सूचित किये हैं - जो आदान - ग्रहण किया जाए, उसे आदान कहते हैं, कर्म । अथवा जिसके द्वारा कर्म का ग्रहण (आदान) किया जाए, वह कर्मों का उपादान आदान है। वह आदान है धर्मोपकरण के अतिरिक्त आगे की पंक्तियों में कहे जाने वाले वस्त्रादि । इस (पूर्वोक्त) कर्म को मुनि....क्षय करके...अथवा (आगे कहे जाने वाले धर्मोपकरण से अतिरिक्त वस्त्रादि का मुनि परित्याग करे।। चूर्णिकार के मतानुसार यहाँ 'एस मुणी आदाणं' पाठ है। 'मुणी' शब्द को उन्होंने सम्बोधन का रूप माना है। 'एस' शब्द के उन्होंने दो अर्थ फलित किये हैं - (१) यह जो अभी-अभी कहा गया था - परीषहादि-जनित नाना दुःखों का स्पर्श होने पर उन्हें समभाव से सहन करे। (२) जो आगे कहा जायेगा, हे मुनि ! तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की आज्ञा-आज्ञापन या उपदेश है। आचा० शीला० टीका पत्रांक १८०
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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