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षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र १८७-१८८
१९५ अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीतफासा फुसंति तेउफासा फुसंति, दंसमसग-फासा फुसंति, एगतरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अधियासेति अचेले लाघवं ' आगमाणे। तवे से अभिसमण्णागए भवति। जहेतं भगवता पवेदितं। तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो २ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव ३ समभिजाणिया।
एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं पुव्वाइं वासाइं रीयमाणाणं दवियाणं पास अधियासियं ।
१८८. आगतपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति पयणुए य मंससोणिए । विस्सेणिं कट्टु परिण्णाय ६ एस तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि।
१८७. सतत सु-आख्यात (सम्यक् प्रकार से कथित) धर्म वाला विधूतकल्पी (आचार का सम्यक् पालन करने वाला) वह मुनि आदान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है।
चूर्णिमान्य पाठान्तर इस प्रकार हैं- 'एस मुणी आदाणं' - "एस त्ति जं भणितं" 'ते फा० पुट्ठो अहियासए' एस तव तित्थगराओ आणा। एसा ते जा भाणिता वक्खमाणा य, मुणी भगवं सिस्सामंतणं वा, आणप्पत इति आणा, जं भणितं उवेदेसा।" - यहाँ 'एस' से तात्पर्य है - जो (अभी-अभी) कहा गया था, कि उन स्पर्शों के आ पड़ने पर मुनि समभाव से सहन करे या आगे कहा जाएगा, यह तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की आज्ञा है - आज्ञापन है - उपेदश है। मुणी शब्द मुनि के लिए सम्बोधन का प्रयोग है कि 'हे मुनि भगवन् !' अथवा शिष्य के लिए सम्बोधन है - "हे मुने !""आताणं आयाणं नाणातियं' (अथवा) आदान का अर्थ है - (तीर्थंकरों की ओर से) ज्ञानादिरूप आदान-विशेष सर्वतोमुखी दान है। चूर्णिकार ने 'विधूतकप्पो णिझोसतित्ता' पाठ मानकर अर्थ किया है - "णियतं णिच्छितं वा झोसइत्ता, अहवा जुसी प्रीतिसेवणयो णियतं णिच्छितं वा झोसतिता, जं भणितं णिसेवतिता फासइत्ता पालयित्ता।" - नियत या निश्चित रूप से मुनि आदान को (उपकरणादि को) कम करके आदान-कर्म को सुखा दे - हटा दे। अथवा जुष धातु प्रीति और सेवन के अर्थ में भी है। नियत किये हुए या निश्चित किये हुए संकल्प या जो कहा है - उस वचन का मुनि सेवन-पालन या स्पर्श करे। चूर्णि में 'अवकरिसणं वोकसणं, णियंसणं णियंसिसामि उवरि पाउरणं'। इस प्रकार अर्थ किया गया है। - अपकर्षण (कम करने) को व्युत्कर्षण कहते हैं। ऊपर ओढ़ने के वस्त्र को पहनूँगा। इससे मालूम होता है - चूर्णि में 'वोक्कसिस्सामि णियसिस्सामि पाउणिस्सामि' पाठ अधिक है। चूर्णि में इसके बदले पाठ है - 'लाघवियं आगमेमाणे' इसका अर्थ नागार्जुनीय सम्मत अधिक पाठ मानकर किया गया है - "एवं खुल से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खयकरणं करेइ," - इस प्रकार, वह मुनि उपकरण लाघविक (उपकरणअवमौदर्य) कर्मक्षयकारक तप करता है। चूर्णि में नागार्जुन सम्मत अधिक पाठ दिया गया है - 'सव्वं सव्वं चेव (सव्वत्थेव?) सव्वकालं पिसव्वेहिं' - सबको सर्वथा सर्वकाल में, सर्वात्मना....जानकर। 'समत्तमेव समभिजाणित्ता' पाठ मानकर चूपि अर्थ किया है - पसत्थो भावो सम्मत्तं...सम्मं अभिजाणित्ता - समभिजाणित्ता, अहवा समभावो सम्मत्तमिति । ...."सम्मत्तं समभिजाणमाणे 'आराधओ भवति, इति वकसेसं।' - 'सम्मत्तं' प्रशस्तभाव का नाम है। प्रशस्तभावपूर्वक सम्यक् प्रकार से जान अथवा सम्मत्त का अर्थ समभाव है। समभाव को सम्यक् जानता हुआ, आराधक होता है (वाक्यशेष)। "चिररायं' पाठान्तर मानकर चूर्णि में अर्थ किया है - 'चिरराइंजं भणितं जावज्जीवाए'। चूर्णि में इसका अर्थ इस प्रकार है - आगतं उवलद्धं भिसं णाणं पण्णाणं...एवं तेसिं महावीराणं आगतपण्णाणाणं" जिन्हें अत्यन्त ज्ञान (प्रज्ञान) आगत-उपलब्ध हो गया है, उन आगतप्रज्ञान महावीरों की। 'परिण्णाय' का भावार्थ चूर्णि में इस प्रकार है - 'एगाए णातुं बितियाए पच्चक्खाएत्ता एक (ज्ञ)'परिज्ञा से जानकर दूसरी (प्रत्याख्यानपरिज्ञा) से प्रत्याख्यान - त्याग करके।