________________
षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र १८९
१९९ माने । सभी साधक यथाविधि कर्मक्षय करने के लिए संयम में उद्यत हैं, ये सभी जिनाज्ञा में हैं, इस प्रकार जानना ही सम्यक् अभिज्ञात करना है।
____ अथवा उक्त वाक्य का यह अर्थ भी सम्भव है - उसी लाघव को सर्वतः (द्रव्यादि से) सर्वात्मना (नामादि निक्षेपों से) निकट से प्राप्त (आचरित) करके सम्यक्त्व को ही सम्यक् प्रकार से जान ले - अर्थात् तीर्थंकरों एवं गणधरों के द्वारा प्रदत्त उपदेश से उसका सम्यक् आचरण करे।
'एवं तेसिं....अधियासियं' - इस पंक्ति के पीछे आशय यह है कि यह लाघव या परीषहसहन आदि धूतवाद का उपदेश अव्यवहार्य या अशक्य अनुष्ठान नहीं है। यह बात साधकों के दिल में जमाने के लिए इस पंक्ति में बताया गया है कि इस प्रकार अचेलत्वपूर्वक लाघव से रहकर विविध परीषह जिन्होंने कई पूर्व (वर्षों) तक (अपनी दीक्षा से लेकर जीवन पर्यन्त) सहे हैं तथा संयम में दृढ़ रहे हैं, उन महान् वीर मुनिवरों (भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक के मुक्तिगमन योग्य मुनिवरों) को देख।
'किसा बाहा भवंति' - इस वाक्य के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं - (१) तपस्या तथा परीषह-सहन से उन प्रज्ञा-प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) मुनियों की बाहें कृश-दुर्बल हो जाती हैं, (२) उनकी बाधाएँ-पीडाएँ कृश - कम हो जाती हैं । तात्पर्य यह है कि कर्म-क्षय के लिए उद्यत प्रज्ञावान् मुनि के लिए तप या परीषह-सहन केवल शरीर को ही पीड़ा दे सकते हैं, उनके मन को वे पीड़ा नहीं दे सकते।
. विस्सेणिं कट्ट' का तात्पर्य वृत्तिकार ने यह बताया है कि संसार-श्रेणी-संसार में अवतरित करने वाली राग-द्वेष-कषाय संतति (श्रृंखला) है, उसे क्षमा आदि से विश्रेणित करके - तोड़कर। ३
'परिण्णाय' का अर्थ है - समत्व भावना से जान कर। जैसे भगवान् महावीर के धर्म शासन में कोई जिनकल्पी (अवस्त्र) होता है, कोई एक वस्त्रधारी, कोई द्विवस्त्रधारी और कोई त्रिवस्त्रधारी, कोई स्थविरकल्पी मासिक उपवास (मासक्षपण) करता है, कोई अर्द्धमासिक तप, इस प्रकार न्यूनाधिक तपश्चर्याशील और कोई प्रतिदिन भोजी भी होते हैं । वे सब तीर्थंकर के वचनानुसार संयम पालन करते हैं इनकी परस्पर निन्दा या अवज्ञा न करना ही समत्व भावना है, जो ऐसा करता है वही समत्वदर्शी है।" आसंदीन-द्वीप तुल्य धर्म
१८९. विरयं भिक्खं रीयंतं चिररातोसियं अरती तत्थ किं विधारए ? संधेमाणे समुट्ठिते ।
जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए । ते अणवकंखमाणा ५ अणतिवातेमाणा दइता मेधाविणो पंडिता ।
३.
आचा० शीला० टीका पत्रांक २२२ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२२ आचा० शीला० टीका पत्रांक २२३ ४. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२३ 'ते अणवकंखमाणा' के बदले 'ते अवयमाणा' पाठ मानकर चूर्णि में अर्थ किया गया है - 'अवदमाणा मुसावातं'-मृषावाद न बोलते हुए...। इसके बदले चूर्णि में अर्थ सहित पाठ है - चत्तोवगरणसरीरा दियत्ता, अहवा साहुवग्गस्स सन्निवग्गस्स वा चियत्ता जं भणितं सम्मता। - दियत्ता का अर्थ है - जिन्होंने उपकरण और शरीर (ममत्व) का त्याग कर दिया है । अथवा दयिता पाठ मानकर अर्थ - साधुवर्ग के या संज्ञी जीवों के या श्रावक वर्ग के प्रिय होते हैं,जो कुछ होते हैं, उसमें वे (साधु, श्रावक) सम्मत हो जाते हैं।