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________________ १९२ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध बांधता है, हैरान करता है, पीटता है, संताप देता है। (५) ये कष्ट समभाव से सहन किये जाने पर एकान्ततः कर्मों की निर्जरा (क्षय) होगी। 'तितिक्खमाणे परिव्वए जे य हिरी जे य अहिरीमणा' - इस पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट है। परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करता हुआ मुनि संयम में विचरण करे। इससे पूर्व परीषह के दो प्रकार बताए गए हैंअनुकूल और प्रतिकूल। जिनके लिए 'एगतरे-अण्णतरे' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। इस पंक्ति में भी पुनः परीषह के दो प्रकार प्रस्तुत किए गए हैं - "हिरी' और 'अहिरीमणा'। 'ह्री' का अर्थ लज्जा है। जिन परीषहों से लज्जा का अनुभव हो, जैसे याचना, अचेल आदि वे 'ह्रीजनक' परीषह कहलाते हैं तथा शीत, उष्ण आदि जो परीषह अलज्जाकारी हैं, उनके 'अह्रीमना' परीषह कहते हैं । वृत्तिकार ने 'हारीणा', 'अहारीणा' इन दो पाठान्तरों को मानकर इनके अर्थ क्रमशः यों किये हैं - __ सत्कार, पुरस्कार आदि जो परीषह साधु के 'हारी' यानी मन को आह्लादित करने वाले हैं, वे 'हारी' परीषह तथा जो परीषह प्रतिकूल होने के कारण मन के लिए अनाकर्षक.- अनिष्टकर हैं, वे 'अहारी' परीषह कहलाते हैं। धूतवादी मुनि को इन चारों प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहना चाहिए। 'चेच्चा सव्वं विसोत्तियं' - समस्त विस्रोतसिका का त्याग करके। 'विसोत्तिया' शब्द प्रतिकूलगति, विमार्गगमन, मन का विमार्ग में गमन, अपध्यान, दुष्टचिन्तन और शंका - इन अर्थों में व्यवहृत होता है। ३ यहाँ 'विसोत्तिय' शब्द के प्रसंगवश शंका, दुष्टचिन्तन, अपध्यान या मन का विमार्गगमन - ये अर्थ हो सकते हैं । अर्थात् परीषह या उपसर्ग के आ पड़ने पर मन में जो आर्त्त-रौद्र-ध्यान आ जाते हैं, या विरोधी के प्रति दुश्चिन्तन होने लगता है, अथवा मन चंचल और क्षुब्ध होकर असंयम में भागने लगता है, अथवा मन में कुशंका पैदा हो जाती है कि ये जो परीषह और उपसर्ग के कष्ट मैं सह रहा हूँ, इसका शुभ फल मिलेगा या नहीं ? इत्यादि समस्त विस्रोतसिकाओं को धूतवादी सम्यग्दर्शी मुनि त्याग दे। 'अणागमणधम्मिणो' - जो साधक पंचमहाव्रत और सर्वविरति चारित्र (संयम) की प्रतिज्ञा का भार जीवन के अन्त तक वहन करते हैं, परीषहों और उपसर्गों के समय हार खाकर पुनः गृहस्थलोक या स्वजनलोक - (गृहसंसार) की ओर नहीं लौटते, न ही किसी प्रकार की कामासक्ति को लेकर लौटना चाहते हैं, वे – 'अनागमनधर्मी' कहलाते हैं । यहाँ शास्त्रकार उनके लिए कहते हैं - 'एए भो णगिणावुत्ता, जे लोगं सि अणागमणधम्मिणो।' अर्थात् – इन्हीं परीषहसहिष्णु निष्किंचन निर्ग्रन्थों को 'भावनग्न' कहा गया है, जो लोक में अनागमनधर्मी हैं । ५ '. 'आणाए मामगं धम्म' का प्रचलित अर्थ है - 'मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है। परन्तु 'आज्ञा' शब्द को यहाँ तृतीयान्त मानकर वृत्तिकार इस वाक्य के दो अर्थ करते हैं - पचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उप्पन्ने परिसहोवसग्गे सम्म सहइ खमइ तितिक्खड़ अहियासेइतंजहा(१) जक्खाइटे अयं पुरिसे, (२) दत्तचित्ते अयं पुरिसे, (३) उम्मायपत्ते अयं पुरिसे, (४) मम च णं पुव्वम्भव वेअणीआणि कम्माणि उदिन्नाणि भवंति, जनं एस पुरिसे आउसह बंधइ, तिप्पइ, पिट्ठइ, परितावेइ, (५) मम चणं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणिजरा हवइ। - स्था० स्थान ५ उ०१ सू०७३ आचा० शीला० टीका पत्रांक २१९ ३. 'पाइअसद्दमहण्णवो' पृष्ठ ७०७ आचा० शीला० टीका पत्रांक २२० आचा० शीला० टीका पत्रांक २२०
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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