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________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र १८६ १९३ (१) जिससे सर्वतोमुखी ज्ञापन किया जाये - बताया जाये, उसे आज्ञा कहते हैं, आज्ञा से (शास्त्रानुसार या शास्त्रोक्त आदेशानुसार) मेरे धर्म का सम्यक् अनुपालन करे । अथवा (२) धर्माचरणनिष्ठ साधक कहता है- 'एकमात्र धर्म ही मेरा है, अन्य सब पराया है, इसलिए मैं आज्ञा से - तीर्थंकरोपदेश से उसका सम्यक् पालन करूंगा । " 'एस उत्तरवादे....' का तात्पर्य है - समस्त परीषहों और उपसर्गों के आने पर समभाव से सहना, मुनिधर्म से विचलित होकर पुनः स्वजनों के प्रति आसक्तिवश गृहवास में न लौटना, काम-भोगों में जरा भी आसक्त न होना, तप, संयम और तितिक्षा में दृढ़ रहना, यह उत्तरवाद है। यही मानवों के लिए उत्कृष्ट - धूतवाद कहा है। इसमें लीन होकर इस वाद का यथानिर्दिष्ट सेवन पालन करता हुआ आदानीय- अष्टविधकर्म को, मूल उत्तर प्रकृतियों आदि सहित सांगोपांग जानकर मुनि - पर्याय ( श्रमण-धर्म) में स्थिर होकर उस कर्म - समुदाय को आत्मा से पृथक् करे - उसका क्षय करे। यह शास्त्रकार का आशय है । २ - एकचर्या - निरूपण १८६. इह एगेसिं एगचरिया होति । तत्थितराइतरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से मेधावी परिव्वए सुब्भि अदुवा दुब्भि । अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति । ते फासे पुट्ठो धीरो अधियासेज्जासि त्ति बेमि । १८६. इस (निर्ग्रन्थ संघ) में कुछ लघुकर्मी साधुओं द्वारा एकाकी चर्या (एकल-विहार- प्रतिमा की साधना ) स्वीकृत की जाती है। उस (एकाकी - विहार - प्रतिमा) में वह एकल - विहारी साधु विभिन्न कुलों से शुद्ध- एषणा और सर्वेषणा (आहारादि की निर्दोष भिक्षा) से संयम का पालन करता है। वह मेधावी (ग्राम आदि में) परिव्रजन (विचरण) करे । सुगन्ध से युक्त या दुर्गन्ध से युक्त (जैसा भी आहार मिले, उसे समभाव से ग्रहण या सेवन करे) अथवा एकाकी विहार साधना से भयंकर शब्दों को सुनकर या भयंकर रूपों को देखकर भयभीत न हो । १. ३. हिंस्र प्राणी तुम्हारे प्राणों को क्लेश (कष्ट) पहुँचाएँ, (उससे विचलित न हो) । उन स्पर्शो (परीषहजनित - दुःखों) का स्पर्श होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे। ऐसा मैं कहता हूँ । - विवेचन - पूर्व सूत्रों में धूतवाद का सम्यक् निरूपण कर उसे 'उत्तरवाद' - श्रेष्ठ आदर्श सिद्धान्त के रूप में प्रस्थापित किया है। धूतवादी का जीवन कठोर साधना का मूर्तिमत रूप है, अनासक्ति की चरम परिणति है । यह प्रस्तुत सूत्र में बताया गया 1 'सुद्धेसणाए सव्वेसणाए'- ये दो शब्द धूतवादी मुनि के आहार सम्बन्धी सभी एषणाओं से सम्बन्धित हैं। एषणा शब्द यहाँ तृष्णा, इच्छा, प्राप्ति या लाभ अर्थ में नहीं है, अपितु साधु की एक समिति (सम्यक्प्रवृत्ति) है, जिसके माध्यम से वह निर्दोष भिक्षा ग्रहण करता है। अतः 'एषणा' शब्द यहाँ निर्दोष आहारादि (भिक्षा) की खोज आचा० शीला० टीका पत्रांक २२० २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२० 'तत्थ इयरातरेहिं' पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है- 'इतराइतरं इतरेतरं कमो गहितो ण उड्डड्डयाहिं' - अन्यान्य या भिन्न-भिन्न कुलों से "यहाँ इतरेतर शब्द से भिन्न-भिन्न कर्म या क्रम ग्रहण किया गया है। यहाँ कर्म का अर्थ व्यवसाय या धंधा है । विभिन्न धंधों वाले परिवारों से...। अथवा भिक्षाटन के समय क्रमशः भिन्न-भिन्न कुलों से बिना क्रम के अंट-संट नहीं ।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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