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षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १८४-१८५
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किया है - 'काम-भोगों में या माता-पिता आदि स्वजन-लोक में अनासक्त।"
'सव्वं गेहिं परिण्णाय' - इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - 'समस्त गृद्धि - भोगाकांक्षा को दुःखरूप (ज्ञपरिज्ञा से) जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका परित्याग करे। चूर्णिकार 'गिद्धिं' के स्थान पर 'गन्थं' शब्द मानकर इसी प्रकार अर्थ करते हैं । २' ।
'अतियच्च सव्वओ संग' - यह वाक्य सर्वसंग-परित्यागरूप धूत का प्राण है । संग का अर्थ है - आसक्ति या ममत्वयुक्त सम्बन्ध । इसका सर्वथा अतिक्रमण करने का मतलब है इससे सर्वथा ऊपर उठना । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव किसी भी प्रकार का प्रतिबन्धात्मक सम्बन्ध संग को उत्तेजित कर सकता है। इसलिए सजीव (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि पूर्व सम्बन्धियों) और निर्जीव (सांसारिक भोगों आदि) पदार्थों के प्रति आसक्त का सर्वथा त्याग करना धूतवादी महामुनि के लिए अनिवार्य है। किस भावना का आलम्बन लेकर संग-परित्याग किया जाय ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं - 'ण महं अत्थि' मेरा कोई नहीं है, मैं (आत्मा) अकेला हूँ, इस प्रकार से एकत्वभावना का अनुप्रेक्षण करे। आवश्यकसूत्र में संस्तार पौरुषी के सन्दर्भ में मुनि के लिए प्रसन्नचित्त और दैन्यरहित मन से इस प्रकार की एकत्वभावना का अनुचिन्तन करना आवश्यक बताया गया है -
... 'एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ ।
. सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।" '- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और उपलक्षण में सम्यक्-चारित्र से युक्त एकमात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है। आत्मा के सिवाय अन्य सब पदार्थ बाह्य हैं, वे संयोगमात्र से मिले हैं। .
'सव्वतो मुंडे' - केवल सिर मुंडा लेने से ही कोई मुण्डित या श्रमण नहीं कहला सकता, मनोजनित कषायों और इन्द्रियों को भी मूंडना (वश में करना) आवश्यक है। इसीलिए यहाँ 'सर्वतः मुण्ड' होना बताया है। स्थानांगसूत्र में क्रोधादि, चार कषायों, पांच इन्द्रियों एवं सिर से मुण्डित होने (विकारों को दूर करने) वाले को सर्वथा मुण्ड कहा गया है। ५ ___वध, आक्रोश आदि परीषहों के समय धूतवादी मुनि का चिन्तन - वृत्तिकार ने स्थानांगसूत्र का उद्धरण देकर पांच प्रकार से चिन्तन करके परीषह सहन करने की प्रेरणा दी है -
(१) यह पुरुष किसी यक्ष (भूत-प्रेत) आदि से ग्रस्त है। (२) यह व्यक्ति पागल है। (३) इसका चित्त दर्प से युक्त है। (४) मेरे ही किसी जन्म में किये हुए, कर्म उदय में आए हैं, तभी तो यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है,
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(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २१९ (ख) आचारांग चूर्णि आचा० मूलपाठ पृ०६१ टिप्पण । (मुनि जम्बूविजयजी) (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २१९ (ख) आचारांग चूर्णि आचा० मूलपाठ पृष्ठ ६१ टिप्पण आचा० शीला० टीका पत्रांक २१९ तुलना करें - नियमसार १०२ । आतुर प्र० २६ स्थानांगसूत्र स्था० ५ उ०३, सू० ४४३