SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० (मिथ्यारोपात्मक ) शब्दों द्वारा (सम्बोधित करता है), हाथ-पैर आदि काटने का झूठा दोषारोपण करता है; ऐसी स्थिति में मुनि सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करे। उन एकजातीय (अनुकूल) और भिन्नजातीय ( प्रतिकूल ) परीषहों को उत्पन्न हुआ जानकर समभाव से सहन करता हुआ संयम में विचरण करे। (साथ ही वह मुनि) लज्जाकारी (याचना, अचेल आदि) और अलज्जाकारी (शीत, उष्ण आदि) (दोनों प्रकार के परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता हुआ विचरण करे ) । आचारांग सूत्र १८५. सम्यग्दर्शन-सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएँ छोड़कर दुःख - स्पर्शो को समभाव से सहे । हे मानवो ! धर्मक्षेत्र में उन्हें ही नग्न (भावनग्न, निर्ग्रन्थ या निष्किचन) कहा गया है, जो ( परीषह - सहिष्णु) मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते। आज्ञा में मेरा (तीर्थंकर का) धर्म है, यह उत्तर (उत्कृष्ट) वाद / सिद्धान्त इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है। विषय से उपरत साधक ही इस उत्तरवाद का आसेवन (आचरण) करता है । वह कर्मों का परिज्ञान (विवेक) करके पर्याय (मुनि-जीवन / संयमी जीवन) से उसका क्षय करता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेचन - धूतवादी महामुनि - जो महामुनि विशुद्ध परिणामों से श्रुत - चारित्ररूप मुनिधर्म अंगीकार करके उसके आचरण में आजीवन उद्यत रहते हैं, उनके लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं। - (१) धर्मोपकरणों का यत्नापूर्वक निर्ममत्वभाव से उपयोग करने वाला । (२) परीषह - सहिष्णुता का अभ्यासी । (३) समस्त प्रमादों का यत्नापूर्वक त्यागी । (४) काम - भोगों में या स्वजन - लोक में अलिप्त / अनासक्त । १. (५) तप, संयम तथा धर्माचरण में दृढ़ । (६) समस्त गृद्धि - भोगाकांक्षा का परित्यागी । (७) संयम या धूतवाद के प्रति प्रणत/समर्पित । (८) एकत्वभाव के द्वारा कामासक्ति या संग का सर्वथा त्यागी । (९) द्रव्य एवं भाव से सर्वप्रकार से मुण्डित । (१०) संयमपालन के लिए अचेलक (जिनकल्पी) या अल्पचेलक ( स्थविरकल्पी) साधना को स्वीकारने वाला । (११) अनियत - अप्रतिबद्धविहारी । (१२) अन्त - प्रान्तभोजी, अवमौदर्य तपःसम्पन्न । (१३) अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का सम्यक् प्रकार से सहन करने वाला। १ अप्पलीयमाणे - इसका अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है - 'जो विषय - काषायादि से दूर रहता है।' लीन का अर्थ है - मग्न या तन्मय, इसलिए अलीन का अर्थ होगा अमग्न या अतन्मय । वृत्तिकार ने अप्रलीयमान का अर्थ आचा० शीला० टीका पत्रांक २१९
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy