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षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १८४-१८५
१८९ विरते अणगारे सव्वतो मुंडे रीयंते जे अचेले परिवुसिते संचिक्खति' ओमोयरियाए। से अकुट्टे व हते व लूसिते वा पलियं पगंथं अदुवा पगंथं अतेहेहिं सद्दफासेहिं इति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिव्वए जे य हिरी जे य अहिरीमणा ।
१८५. चेच्चा सव्वं विसोत्तियं फासे फासे समितदंसणे । एते भो णगिणा वुत्ता जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो । आणाए मामगं धम्मं । एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिते ।
एत्थोवरते तं झोसमाणे आयाणिजं परिण्णाय परियाएण विगिंचति । . १८४. यहाँ कई लोग (श्रुत-चारित्ररूप), धर्म (मुनि-धर्म) को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं।
वह (माता-पिता आदि लोक में या काम-भोगों में) अलिप्त/अनासक्त और (तप, संयम आदि में) सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं)।
समग्र आसक्ति (गृद्धि) को (ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत - समर्पित महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धूनने में प्रवृत्त होता है।
. (फिर वह महामुनि) सर्वथा संग (आसक्ति) का (त्याग) करके (यह भावना करे कि) 'मेरा कोई नहीं है, इसलिए 'मैं अकेला हूँ।'
वह इस (तीर्थंकर के संघ) में स्थित, (सावध प्रवृत्तियों से) विरत तथा (दशविध समाचारी में) यतनाशील अनगार सब प्रकार से मुण्डित होकर (संयम पालनार्थ) पैदल विहार करता है, जो अल्पवस्त्र या निर्वस्त्र (जिनकल्पी) है, वह अनियतवासी रहता है या अन्त-प्रान्तभोजी होता है, वह भी ऊनोदरी तप का सम्यक् प्रकार से अनुशीलन करता है।
(कदाचित्) कोई विरोधी मनुष्य उसे (रोषवश) गाली देता है, (डंडे आदि से) मारता-पीटता है, उसके केश उखाड़ता या खींचता है (अथवा अंग-भंग करता है), पहले किये हुए किसी घृणित दुष्कर्म की याद दिलाकर कोई बक-झक करता है (या घृणित व असभ्य शब्द-प्रयोग करके उसकी निन्दा करता है), कोई व्यक्ति तथ्यहीन
१.
इसके बदले चूर्णि में 'सचिक्खंमाणे ओमोदरियाए' पाठ मानकर अर्थ किया गया है - "सम्म चिट्ठमाणे संचिक्खमाणे"अवमौदर्य (तप) की सम्यक् चेष्टा (प्रयत्न) करता हुआ। अथवा उसमें सम्यक् रूप से स्थिर होकर। इसके बदले पाठान्तर है - 'अदुवा पकत्थं,अदुवा पकप्पं,अदुवा पगंथं, पलियं पगंथे।' - अर्थ क्रमश: यों है - "पलियं णाम कम्म...अदुवेति अहवा अन्नेहि चेव जगार-सगारेहिं भिसं कथेमाणो पगंथमाणो।" - पलित का अर्थ कर्म है, (यहाँ उस साधक के पूर्व जीवन के करतब, धंधे या किसी दुष्कृत्य के अर्थ में कर्म शब्द है) अथवा दूसरों द्वारा 'तू ऐसा है, तू वैसा है,' इत्यादि रूप से बहुत भद्दी गालियों या अपशब्दों द्वारा निन्दित किया जाता हुआ...."। अथवा प्रकल्प = आचार-आचरण पर छींटाकशी करते हुए"अथवा पूर्वकृत दुष्कर्म को बढ़ा-चढ़ा कर नुक्ताचीनी करते हुए"....। इसके बदले 'अहिरीमाणा' पाठ है, अर्थ होता है - लज्जित न करने वाले। कहीं-कहीं 'हारीणा अहारीणा' पाठ भी मिलता है। अर्थ होता है - हारी = मन हरण करने वाले, अहारी = मन हरण न करने वाले। इसके बदले चूर्णि में 'तज्झोसमाणे' पाठ मानकर अर्थ किया गया है - तं जहोदिखं झोसेमाणे - उसे उद्देश्य या निर्दिष्ट के अनुसार सेवन-पालन करते हुए ।