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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध १ करता), उन भोगों का हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है । ' निष्कर्ष यह है कि बाह्यरूप से धूतवाद को अपनाकर भी संग-परित्याग रूप धूत को नहीं अपनाया, इसलिए वह संग - अत्यागी ही बना रहा। १८८ अत्यागी बनने के कारण और परिणाम - सूत्र १८३ के उत्तरार्ध में उस साधक के सच्चे अर्थ में त्यागी और धूतवादी न बनने के कारणों का सपरिणाम उल्लेख किया गया है - 'वत्थं पडिग्गहं अवितिण्णा चे ते' वृत्तिकार इसका आशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं करोड़ों भवों में दुष्प्राप्य मनुष्य जन्म को पाकर, पूर्व में उपलब्ध, संसार - सागर को पार करने में समर्थ बोधि- नौका को अपनाकर, मोक्ष-तरु के बीज रूप सर्वविरति चारित्र को अंगीकार करके, काम की दुर्निवारता, मन की चंचलता, इन्द्रिय-विषयों की लोलुपता और अनेक जन्मों के कुसंस्कारवश वे परिणाम और कार्याकार्य का विचार न करके, अदूरदर्शिता पूर्वक महादु:ख रूप सागर'को अपनाकर एवं वंशपरम्परागत साध्वाचार से पतित होकर कई व्यक्ति मुनि - धर्म ( धूतवाद ) छोड़ बैठते हैं। उनमें से कई तो वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरणों को निरपेक्ष होकर छोड़ देते हैं और देशविरति अंगीकार कर लेते हैं, कुछ केवल सम्यक्त्व का आलम्बन लेते हैं, कई इससे भी भ्रष्ट हो जाते हैं। मुनि-धर्म को छोड़कर ऐसे अत्यागी बनने के तीन मुख्य कारण यहाँ शास्त्रकार ने बताये हैं - (१) असहिष्णुता - धीरे-धीरे क्रमशः दुःसह परीषहों को सहन न करना । (२) काम - आसक्ति - विविध काम-भोगों का उत्कट लालसावश स्वीकार । (३) अतृप्ति - अनेक विघ्नों, विरोधों (द्वन्द्वों) एवं अपूर्णताओं से भरे कामों से अतृप्ति। इसके साथ ही इनका परिणाम भी यहाँ बता दिया गया है कि वह दीक्षात्यागी दुर्गति को न्यौता दे देता है, प्रव्रज्या त्याग के बाद तत्काल, मुहूर्तभर में या लम्बी अवधि में भी शरीर छूट सकता है और भावों में अतृप्ति बनी रहती है। निष्कर्ष यह है कि भोग्य पदार्थों और भोगों के संग का परित्याग न कर सकना ही सर्वविरतिचारित्र से भ्रष्ट होनें का मुख्य कारण है। विषय - विरतिरूप उत्तरवाद १८४. अहेगे धम्ममादाय आदाणप्पभिति सुप्पणिहिए चरे ' अप्पलीयमाणे ' दढे सव्वं " गेहिं परिण्णाय । एस पणते महामुणी अतियच्च सव्वओ संग 'ण महं अत्थि' त्ति, इति एगो अहमंसि ५, जयमाणे, एत्थ १. २. ४. ५. ६. ७. देखें, दशवैकालिक अ० २, गा० २-३ - वत्थगन्धमलकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुँजति न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥ जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठीकुव्वड़ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ॥३॥ आचा० शीला० टीका पत्रांक २१८ ३. आचा० शीला० टीका पत्रांक २१८ 'चर' क्रिया, यहाँ उपदेश अर्थ में है, 'चर इति उवदेसो', धम्मं चर 'धर्म का आचरण कर' - चूर्णि । 'अप्पलीयमाणे' का अर्थ चूर्णि में इस प्रकार है- 'अप परिवर्जने लीणो विसय-कसायादि' - विषय - कषायादि से दूर रहते हुए । 'सव्वं गंथं परिण्णाय' का चूर्णि में अर्थ - 'सव्वं निरवसेसं गंथो गेही' समस्त ममत्व की गांठ- गृद्धि को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर ......... । किसी प्रति में 'एगो महमंसि' पाठ है, अर्थ है- तुम एक और महान हो ।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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