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षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १८३
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'चइत्ता पुव्वसंजोगं' - किसी सजीव व निर्जीव वस्तु के साथ संयोग होने से धीरे-धीरे आसक्ति, स्नेह-राग, काम-राग या ममत्वभाव बढ़ता जाता है, इसलिए प्रव्रज्या-ग्रहण से पूर्व जिन-जिन के साथ ममत्वयुक्त संयोगसम्बन्ध था, उसे छोड़कर ही सच्चे अर्थ में अनगार बन सकता है। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र (१।१) में कहा गया है -
__ 'संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो' (संयोग से विशेष प्रकार से मुक्त अनगार और गृहत्यागी भिक्षु के.)। चूर्णि में इसके स्थान पर 'जहित्ता पुव्वमायतणं' पूर्व आयतन को छोड़कर, ऐसा पाठ है । आयतन का अर्थ शब्दकोष के अनुसार यहाँ 'कर्मबन्ध का कारण' या 'आश्रय' ये दो ही उचित प्रतीत होते हैं।'
'वसित्ता बंभचेरसि' यहाँ प्रसंगवश ब्रह्मचर्य का अर्थ गुरुकुलवास या चारित्र ही उपयुक्त लगता है। गुरुकुल (गुरु के सान्निध्य) में निवास करके या चारित्र में रमण करके, ये दोनों अर्थ फलित होते हैं । २
'वसु वा अणुवसु वा' - ये दोनों पारिभाषिक शब्द दो कोटि के साधकों के लिए प्रयुक्त हुए हैं । वृत्तिकार ने वसु और अनुवसु के दो-दो अर्थ किए। वैसे, वसु द्रव्य (धन) को कहते हैं । यहाँ साधक का धन है - वीतरागत्व, क्योंकि उसमें कषाय, राग-द्वेष मोहादि की कालिमा बिल्कुल नहीं रहती। यहाँ वसु का अर्थ वीतराग (द्रव्यभूत) और अनुवसु का अर्थ है सराग। वह वस (वीतराग) के अनुरूप दिखता है, उसका अनुसरण करता है, किन्तु सराग होता है, इसलिए संयमी साधु अर्थ फलित होता है अथवा वसु का अर्थ महाव्रती साधु और अनुवसु का अर्थ - अणुव्रती श्रावक - ऐसा भी हो सकता है। ३
'अहेगे तमचाइ कुसीला' - शास्त्रकार ने उन साधकों के प्रति खेद व्यक्त किया है, जो सभी पदार्थों का संयोग छोड़कर, उपशम प्राप्त करके, गुरुकुलवास करके अथवा आत्मा में विचरण करके धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी मोहोदयवश धर्म-पालन में अशक्त बन जाते हैं। धर्म-पालन में अशक्त होने के कारण ही वे कुशील (कुचारित्री) होते हैं । चूर्णिकार ने भी 'अच्चाई' शब्द मानकर उसका अर्थ 'अशक्तिमान' किया है । यद्यपि अच्चाई' का संस्कृत रूपान्तर 'अत्यागी' होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने बाहर से पदार्थों को छोड़ दिया, कषायों को उपशम भी किया, ब्रह्मचर्य भी पालन किया, शास्त्र पढ़कर धर्मज्ञाता भी बन गया, परन्तु अन्दर से यह सब नहीं हुआ। अन्तर में पदार्थों को पाने की ललक है, निमित्त मिलते ही कषाय भड़क उठते हैं, ब्रह्मचर्य भी केवल शारीरिक है या गुरुकुलवास भी औपचारिक है, धर्म के अन्तरंग को स्पर्श नहीं किया, इसलिए बाहर से धूतवादी एवं त्यागी प्रतीत होने पर भी अन्तर से अधूतवादी एवं अत्यागी अचाई' है।"
__ दशवैकालिक सूत्र में निर्दिष्ट, अत्यागी और त्यागी का लक्षण इसी कथन का समर्थन करता है - 'जो साधक वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियाँ, शय्या, आसन आदि का उपभोग अपने अधीन न होने से नहीं कर पाता, (मन में उन पदार्थों की लालसा बनी हुई है) तो वह त्यागी नहीं कहलाता।' इसके विपरीत जो साधक कमनीय-प्रिय भोग्य पदार्थ स्वाधीन एवं उपलब्ध होने या हो सकने पर भी उनकी ओर पीठ कर देता है, (मन में उन वस्तुओं की कामना नहीं १. (क) आचा०. शीला० टीका पत्रांक २१७ (ख) 'पाइयसद्दमहण्णवो' पृष्ठ ११४ ।
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २१७ (ख) आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० २३५ ३. आचा०शीला० टीका पत्रांक २१७
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २१७ (ख) आचारांग चूर्णि - आचा० मूल पृ० ६१