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षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १८३
१८५ स्वजन-परित्यागरूप धूत में दृढ़ बने रहने के लिए धूतवादी महामुनि को प्रेरित करते हैं - 'सरणं तत्थ नो समेति, किह णाम से तत्थ रमति ?'
वृत्तिकार इसका भावार्थ लिखते हैं - जिस (महामुनि) ने संसार-स्वभाव को भलीभाँति जान लिया है, वह उस अवसर पर अनुरक्त बन्धु-बान्धवों की शरण-ग्रहण स्वीकार नहीं करता। जिसने मोह-कपाट तोड़ दिए हैं, भला वह समस्त बुराइयों और दुःखों के स्थान एवं मोक्ष द्वार में अवरोधक गृहवास में कैसे आसक्ति कर सकता है ?'
___ 'अतारिसे मुणी ओहं तरए...' शास्त्रकार स्वजन-परित्याग रूप धूतवाद में अविचल रहने वाले महामुनि का परीक्षाफल घोषित करते हुए कहते हैं - वह अनन्यसदृश - (अद्वितीय) मुनि संसार-सागर से उत्तीर्ण हो जाता है। यहाँ अतारिसे' शब्द के दो अर्थ चूर्णिकार ने किए हैं - (१) जो इस धर्म-संकट को पार कर जाता है, वह संसारसागर को पार कर जाता है, (२) उस मुनि के जैसा कोई नहीं है, जो संसार के प्रवाह को पार कर जाता है। २
'...समणुवासेज्जासि' - वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों इस पंक्ति की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हैं। वृत्तिकार के अनुसार अर्थ है - इस (पूर्वोक्त धूतवाद के) ज्ञान को सदा आत्मा में सम्यक् प्रकार से अनुवासितस्थापित कर ले - जमा ले। चूर्णिकार के अनुसार अर्थ यों है - इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सम्यक् प्रकार से अनुकूल रूप में आचार्य श्री के सान्निध्य में रहकर अपने भीतर में बसा ले, उतार ले। ३
॥प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक सर्वसंग-परित्यागी धूत का स्वरूप
१८३. आतुरं लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हेच्चा ५ उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा
२.
३.
आचा० शीला० टीका पत्र २१७ (क) संसारसागरं तारी मुणी भवति... अथवा अतारिसो-ण तारिसो मुणी णस्थि जेण...।
- आचारांग चूर्णि पृष्ठ ६० सूत्र १८२ (ख) न तादृशो मुनिर्भवति, नचौघं - संसारं तर रति..।- आचारांग शीला० टीका पत्र २१७ वृत्तिकार - 'एतत्'(पूर्वोक्तं)'ज्ञान' सदा आत्मानि सम्यगनुवासयेः व्यवस्थापयेः।'
- आचा० शीला० टीका पत्रांक २१७ चूर्णिकार - "एतणाणं सम्म...अणुकूलं आयरिय समीवे अणुवसाहि-अणुवसिज्जासि।' - वही, सू० १८२ पाठान्तर चूर्णि में इस प्रकार है - 'जहित्ता पुव्वमायतणं' - अर्थ है - पूर्व आयतन को छोड़कर। इसका अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में - 'इह एच्चा हिच्चा' आदि अक्खरलोवा हिच्चा, इहेति अस्मि प्रवचने। 'हिच्चा' की इस प्रकार स्थिति थी- इह+एच्चा-हिच्चा। आदि के इकार का लोप हो गया। अर्थ - इस प्रवचन-संघ में (उपशम को) प्राप्त करके......।