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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध धूत बनने का दुर्गम एवं दुष्कर क्रम - शास्त्रकार ने 'इहं खलु अत्तताए ..."अणुपुव्वेण महामुणी' तक की पंक्ति में धूत (कर्मक्षय कर्ता) बनने का क्रम इस प्रकार बताया है - इसके ६ सोपान हैं - (१) अभिसम्भूत, (२) अभिसंजात, (३) अभिनिर्वृत्त, (४) अभिसंवृद्ध, (५) अभिसम्बुद्ध और (६) अभिनिष्क्रान्त। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है - १८४ अभिसम्भूत - सर्वप्रथम अपने किए हुए कर्मों के परिणाम (फल) भोगने के लिए स्वकर्मानुसार उस-उस मानव कुल में सात दिन तक कलल (पिता के शुक्र और माता के रज) के अभिषेक के रूप में बने रहना, इसे अभिसम्भूत कहते हैं। अभिसंजात - फिर ७ दिन तक अर्बुद के रूप में बनना, तब अर्बुद से पेशी बनना और पेशी से घन तक बनना अभिसंजात कहलाता है । १ अभिनिर्वृत्त - उसके पश्चात् क्रमशः अंग, प्रत्यंग, स्नायु, शिरा, रोम आदि का निष्पन्न होना अभिनिवृत्त कहलाता है। अभिसंवृद्ध - इसके पश्चात् माता-पिता के गर्भ से उसका प्रसव (जन्म) होने से लेकर समझदार होने तक संवर्धन होना अभिसंवृद्ध कहलाता है। अभिसम्बुद्ध - इसके अनन्तर धर्मश्रवण करने योग्य अवस्था पाकर पूर्व पुण्य के फलस्वरूप धर्मकथा सुनकर पुण्य-पापादि नौ तत्त्वों को भली-भाँति जानना, गुरु आदि के निमित्त से सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके, संसार के स्वरूप का बोध प्राप्त करना अभिसम्बुद्ध बनना कहलाता है। अभिनिष्क्रान्त - इसके पश्चात् विरक्त होकर घर-परिवार, भूमि- सम्पत्ति आदि सबका परित्याग करके मुनिधर्म पालन के लिए अभिनिष्क्रमण (दीक्षा ग्रहण) करना अभिनिष्क्रान्त कहलाता है। इतना ही नहीं, दीक्षा लेने के बाद गुरु के सान्निध्य में शास्त्रों का गहन अध्ययन, रत्नत्रय की साधना आदि के द्वारा चारित्र के परिणामों में वृद्धि करना और क्रमश: गीतार्थ, स्थविर, क्षपक, परिहार - विशुद्धि आदि उत्तम अवस्थाओं को प्राप्त करना भी अभिनिष्क्रान्त में आता है। कितना दुर्लभ, दुर्गम और दुष्कर क्रम है मुनिधर्म में प्रव्रजित होने तक का । यही धूत बनने योग्य अवस्था है। अभिसम्भूत से अभिनिष्क्रान्त तक की धूत बनने की प्रक्रिया को देखते हुए एक तथ्य यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वजन्म के संस्कार, इस जन्म में माता-पिता आदि के रक्त सम्बन्ध-जनित संस्कार तथा सामाजिक वातावरण से प्राप्त संस्कार धूत बनने के लिए आवश्यक व उपयोगी होते हैं। धूतवादी महामुनि की अग्नि परीक्षा - धूत बनने के दुष्कर क्रम को बताकर उस धूतवादी महामुनि की आन्तरिक अनासक्ति की परीक्षा कब होती है ? यह बताते हुए कहा है कि 'स्वजन - परित्यागरूप धूत की प्रक्रिया के बाद उसके मोहाविष्ट स्वजनों की ओर से करुणाजनक विलाप आदि द्वारा पुनः गृहवास में खींचने के लिए किसकिस प्रकार के उपाय आजमाये जाते हैं ? शास्त्रकार स्पष्ट रूप से सूत्र १८२ में चित्रित करते हैं। साथ ही वे १. २. सप्ताहं कललं विद्यात् ततः सप्ताहमर्बुदम् । अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि घनं भवेत् ॥ - (उद्धृत) आचा० शीला० टीका पत्रांक २१६ आचा० शीला० टीका पत्र २१७
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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