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षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १८१-१८२
१८३ वह मुनि (पारिवारिक जनों का विलाप - रुदन सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता, (वह उनकी बात स्वीकार नहीं करता)। वह तत्त्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस (गृहवास) में रमण कर सकता है?
मुनि इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सदा (अपनी आत्मा में) अच्छी तरह बसा ले (स्थापित कर ले)। - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - धूतवाद के श्रवण और पर्यालोचन के लिए प्रेरणा - धूतवाद क्यों मानना और सुनना चाहिए? इसकी भूमिका इन सूत्रों में शास्त्रकार ने बाँधी है । वास्तव में सांसारिक जीवों को नाना दुःख, कष्ट और रोग आते हैं, वह उनका प्रतीकार दूसरों को पीड़ा देकर करता है, किन्तु जब तक उनके मूल का छेदन नहीं करता, तब तक ये दुःख, रोग और कष्ट नहीं मिटते । मूल है - कर्म । कर्मों का उच्छेद ही धूत है। कर्मों के उच्छेद का सर्वोत्तम उपाय है - शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों पर से आसक्ति, मोह आदि का त्याग करना । त्याग और तप के बिना कर्म निर्मूल नहीं हो पाते। इसके लिए सर्वप्रथम गृहासक्ति और स्वजनासक्ति का त्याग करना अनिवार्य है और वह स्व-चिंतन से ही उद्भूत होगी। तभी वह कर्मों का धूनन (क्षय) करके इन (पूर्वोक्त) दुःखों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने बारम्बार साधक को स्वयं देखने एवं सोचने-विचारने की प्रेरणा दी है - वह स्वयं विचार कर मन को आसक्ति के बंधन से मुक्त करे।
अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया...... मरणं ते सिं सपेहाए, उववायं चवणं च णच्चा, परिपांग च सपेहाए...... तं सुणेह जहा तहा.... पास लोए महब्भयं..... एए रोगा बहू णच्चा..... एयं पास मुणी ! महब्भयं.... आयाण भो सुस्सूस !.....
ये सभी सूत्र स्व-चिंतन को प्रेरित करते हैं । संक्षेप में यही धूतवाद की भूमिका है। जिसके प्रतिपक्षी अधूतवाद को और तदनुसार चलने के दुष्परिणामों को जान-समझकर तथा भलीभाँति देख-सुनकर साधक उससे निवृत्त हो जाए। अधूतवाद के जाल से मुक्त होने के लिए अनगार मुनि बनकर धूतवाद के अनुसार मोहमुक्त जीवन-यापन करना अनिवार्य है।
धूतवाद या धूतोपाय - वृत्तिकार ने आठ प्रकार के कर्मों को धुनने-झाड़ने को धूत कहा है, अथवा ज्ञाति (परिजनों) के परित्याग को भी धूत बताया है। चूर्णि के अनुसार धूत उसे कहते हैं, जिसने कर्मों को तपस्या से प्रकम्पित/नष्ट कर दिया। धूत का वाद - सिद्धान्त या दर्शन धूतवाद कहलाता है।
नागार्जुनीय सम्मत पाठ है - 'धूतोवायं पवेएंति' अर्थात् - धूतोपाय का प्रतिपादन करते हैं। धूतोपाय का मतलब है - अष्टविध कर्मों को धूनने - क्षय करने का उपाय।३ १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २१२-२१३ । २. आचा० शीला० टीका पत्र २१६, 'धूतमष्टप्रकारकर्मधूननं, ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः।' चूर्णि में - 'धुजत्ति
जेण कम्मं तवसा तं धूयं भणितं, धुयस्स वादो।' अष्टप्रकारकर्म - 'धूननोपायं वा प्रवेदयन्ति तीर्थंकरादयः।' - आचा० शीला० टीका २१६ ।