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पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र १७४-१७६
- १७१ दूसरे प्रवादों की परीक्षा करने की छूट दी। कहा - 'मुनि अपने प्रवाद (दर्शन या वाद) को जानकर फिर दूसरे प्रवादों को जाने-परखे। परीक्षा के समय पूर्ण मध्यस्थता-निष्पक्षता एवं समत्वभावना रहनी चाहिए।' १ स्व-पर-वाद का निष्पक्षता के साथ परीक्षण करने पर वीतराग के दर्शन की महत्ता स्वतः सिद्ध हो जाएगी।' आसक्ति-त्याग के उपाय १७४. उड्डे सोता अहे सोता तिरियं सोता वियाहिता। .
एते सोया वियक्खाता जेहिं संगं ति पासहा ॥१२॥ . आवट्टमेयं तु पेहाए । एत्थ विरमेज वेदवी । १७५. विणएत्तु सोतं निक्खम्म एस महं अकम्मा जाणति, पासति, पडिलेहाए णावकंखति ।
१७४. ऊपर (आसक्ति के) स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत (विषयासक्ति के स्थान हैं, जो अपनी कर्मपरिणतियों द्वारा जनित) हैं। ये स्रोत कर्मों के आस्रवद्वार कहे गये हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो।
(राग-द्वेष-कषाय-विषयावर्तरूप) भावावर्त का निरीक्षण करके आगमविद् (ज्ञानी) पुरुष उससे विरत हो जाए।
. - १७५. विषायासक्तियों के या आस्रवों के स्रोत को हटा कर निष्क्रमण (मोक्षमार्ग में परिव्रजन) करने वाला यह महान् साधक अकर्म (घातिकर्मों से रहित या ध्यानस्थ) होकर लोक को प्रत्यक्ष जानता, देखता है।
(इस सत्य का) अन्तर्निरीक्षण करने वाला साधक इस लोक में (अपने दिव्य ज्ञान से) संसार-भ्रमण और उसके कारण की परिज्ञा करके उन (विषय-सुख़ों) की आकांक्षा नहीं करता।
विवेचन - 'उड्डूं सोता." - इत्यादि सूत्र में जो तीनों दिशाओं या लोकों में स्रोत बताए हैं, वे क्या हैं ? वृत्तिकार ने इस पर प्रकाश डाला है - "स्रोत हैं-कर्मों के आगमन (आस्रव) के द्वार, जो तीनों दिशाओं या लोकों में हैं । ऊर्ध्वस्रोत हैं - वैमानिक देवांगनाओं या देवलोक के विषय-सुखों की आसक्ति । इसी प्रकार अधोदिशा में हैंभवनपति देवों के विषय-सुखों में आसक्ति, तिर्यक्लोक में व्यन्तर देव, मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी विषय-सुखासक्ति। इन स्रोतों से साधक को सदा सावधान रहना चाहिए। ३" एक दृष्टि से इन स्रोतों को ही आसक्ति (संग) समझना चाहिए। मन की गहराई में उतरकर इन्हें देखते रहना चाहिए। इन स्रोतों को बन्द कर देने पर ही कर्मबन्धन बन्द होगा। कर्मबन्धन सर्वथा कट जाने पर ही अकर्मस्थिति आती है - जिसे शास्त्रकार ने कहा - "अकम्मा जाणति, पासति।" मुक्तात्म-स्वरूप
१७६. इह आगतिं गतिं परिण्णाय अच्चेति जातिमरणस्स वडुमग्गं वक्खातरते । १. (आयारो) पृष्ठ २२३ ।
'आवट्टमेयं तु पेहाए' के बदले चूर्णि में 'अट्टमेयं तुवेहाए' पाठ मिलता है। अर्थ किया गया है - 'रागद्दोसवसट्टे कम्मंबंधगं
उवेहेत्ता' - रागद्वेष के वश पीड़ित होने से हुए कर्मबन्ध का विचार करके। __ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०७
'वडमगं' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं - वडुमग्गो पंथो वदमग्गं ति पंथानम् । वटुमार्ग का अर्थ है - वटमार्ग-रास्ता।