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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्थ ण ' विज्जति, मती तत्थ ण गाहिया । ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेत्तण्णे ।
से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिते, ण हालिद्दे, ण सुक्किले, ण सुब्भिगंधे, ण दुब्भिगंधे, ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे,ण मउए, ण गरुए, ण. लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्धे, ण लुक्खे, ण काऊ२, ण रुहे, ण संगे, ण इत्थी ३, ण पुरिसे, ण अण्णहा ।
परिणे, सण्णे। उवमा ण विज्जति । अरूवी सत्ता। अपदस्स पदं णत्थि । से ण सद्दे, ण रूवे, ण रसे, ण फासे, इच्चेतावंति त्ति बेमि।
॥ लोगसारो पंचमं अज्झयणं समत्तो ॥ १७६. इस प्रकार वह जीवों की गति-आगति (संसार-भ्रमण) के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यान-रत (मोक्ष-मार्ग में स्थित) मुनि ज़न्म-मरण के वृत्त (चक्राकार) मार्ग को पार कर जाता है (अतिक्रमण कर देता है।)
(उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं-(परमात्मा का स्वरूप शब्दों के द्वारा कहा नहीं जा सकता), वहाँ कोई तर्क नहीं है (तर्क द्वारा गम्य नहीं है)। वहाँ मति (मनन रूप) भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है)। वहाँ (मोक्ष में) वह समस्त कर्ममल से रहित ओजरूप (ज्योतिस्वरूप) शरीर रूप प्रतिष्ठान-आधार से रहित (अशरीरी) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) ही है। . वह (परमात्मा या शुद्ध आत्मा) न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है। वह न कृष्ण (काला) है, न नीला है, न लाल है, न पीला है और न शुक्ल (श्वेत) है। न सुगन्ध(युक्त) है और न दुर्गन्ध (युक्त) है। वह न तिक्त (तीखा) है, न कड़वा है, न कसैला है, न खट्टा है और न मीठा (मधुर) है, वह न कर्कश है, न मृदु (कोमल) है, न गुरु (भारी) है, न लघु (हल्का) है, न ठण्डा है, न गर्म है,
इसका अर्थ चूर्णिकार ने किया है - वक्खायरतो सुत्ते अत्थे य' - सूत्र और अर्थ की व्याख्या (जो की गई है) में रत है। 'काऊ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं - 'काउग्गहणेणं लेस्साओ गहिताओ' - 'काऊ' शब्द से यहाँ लेश्या का ग्रहण किया गया है। यहाँ चूर्णि में पाठान्तर है - ण इत्थिवेदगो,ण णपुंसगवेदगो ण अण्णहत्ति । अर्थात् - वह (परमात्मा) न स्त्रीवेदी है, न नपुंसकवेदी है और न ही अन्य है (यानी पुरुषवेदी है)। इच्चेतावति की चूर्णिसम्मत व्याख्या इस प्रकार है- "इति परिसमत्तीए, एतावंति त्ति तस्स परियाता, एतावंति य परियायविसेसा इति।" - इति समाप्ति अर्थ में है। इतने ही उसके पर्यायविशेष हैं। उपनिषद् में भी 'नेति नेति' कह कर परमात्मा की परिभाषा के विषय में मौन अंगीकार कर लिया है।