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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
उपदेश से विरुद्ध, अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पित मार्ग का अनुसरण करना या कल्पित अनाचार का सेवन करना है। ऐसी अनाज्ञा में उद्यमी वे होते हैं, जो इन्द्रियों के वशवर्ती (दास) होते हैं, अपने ज्ञान, तप, संयम, शरीर-सौन्दर्य, वाक्पटुता आदि के अभिमान से ग्रस्त होते हैं, सद्-असद् विवेक से रहित और 'हम भी प्रव्रज्या ग्रहण किए हुए साधक हैं', इस प्रकार के गर्व से युक्त होते हैं । वे धर्माचरण की तरह प्रतीत होने वाले अपने मन-माने सावध आचरण में उद्यम करते रहते हैं; और आज्ञा में अनुद्यमी वे होते हैं, जो आज्ञा का प्रयोजन, महत्त्व और उसके लाभ समझते हैं, कुमार्ग से उनका अन्त:करण.वासित नहीं है, किन्तु आलस्य, दीर्घसूत्रता, प्रमाद, गफलत, संशय; भ्रान्ति, व्याधि, जड़ता (बुद्धिमन्दता), आत्मशक्ति के प्रति अविश्वास आदि के कारण तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट धर्माचरण के प्रति उद्यमवान् नहीं होते हैं। यहाँ दोनों ही प्रकार के साधकों को ठीक नहीं बताया है। कुमार्गाचरण और सन्मार्ग का अनाचरण दोनों ही त्याज्य हैं। तीर्थंकर का दर्शन है - अनाज्ञा में निरुद्यम और आज्ञा में उद्यम करना।'
'तद्दिट्टीए' आदि पदों का अर्थ वृत्तिकार ने तीर्थंकर-परक और आचार्य-परक दोनों ही प्रकार से किया है। दोनों ही अर्थ संगत हैं क्योंकि दोनों के उपदेश में भेद नहीं होता। इससे पूर्व की पंक्ति है - 'एतं कुसलस्स दंसणं।'
'अभिभूय और अणभिभूते' - मूल में ये दो शब्द ही मिलते हैं, किससे और कैसे? यह वहाँ नहीं बताया गया है, किन्तु पंक्ति के अन्त में 'पभूणिरालंबणताए' पद दिये हैं, इनसे ध्वनित होता है कि निरालम्बी (स्वावलम्बी) बनने में जो बाधक तत्त्व हैं, उन्हें अभिभूत कर देने पर ही साधक अनभिभूत होता है, वही निरवलम्बी (स्वाश्रयी) बनने में समर्थ होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में निरालम्बी की विशेषता बताते हुए कहा गया है."निरालम्बी के योग (मन-वचन-काया के व्यापार) आत्मस्थित हो जाते हैं । वह स्वयं के लाभ में सन्तुष्ट रहता है, पर के द्वारा हुए लाभ में रुचि नहीं रखता, न दूसरे से होने वाले लाभ के लिए ताकता है, न दूसरे से अपेक्षा या स्पृहा रखता है, न दूसरे से होने वाले लाभ की आकांक्षा करता है । इस प्रकार पर से होने वाले लाभों के प्रति अरुचि, अप्रतीक्षा, अनपेक्षा, अस्पृहा या अनाकांक्षा रखने से वह साधक द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त करके विचरण करता है।"
वृत्तिकार के अनुसार 'अभिभूय' का आशय है - 'परीषह, उपसर्ग या घातिकर्मचतुष्टय को पराजित करके...।' वस्तुतः साधना के बाधक तत्त्वों में परीषह, उपसर्ग (कष्ट) आदि भी हैं, घातिकर्म भी हैं, भौतिक सिद्धियाँ, यौगिक उपलब्धियाँ.या लब्धियाँ भी बाधक हैं, उनका सहारा लेना आत्मा को पंगु और परावलम्बी बनाना है। इसी प्रकार दूसरे लोगों से अधिक सहायता की अपेक्षा रखना भी पर-मुखापेक्षिता है, इन्द्रिय-विषयों, मन के विकारों आदि का सहारा लेना भी उनके वशवर्ती होना है, इससे भी आत्मा पराश्रित और निर्बल होता है। निरवलम्बी अपनी ही उपलब्धियों में सन्तुष्ट रहता है। वह दूसरों पर या दूसरों से मिली हुई सहायता, प्रशंसा या प्रतिष्ठा पर निर्भर नहीं रहता। साधक को आत्म-निर्भर (स्व-अवलम्बी) बनना चाहिए।
भगवान् महावीर ने प्रत्येक साधक को धर्म और दर्शन के क्षेत्र में स्वतन्त्र चिन्तन का अवकाश दिया। उन्होंने
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आचा० शीला० टीका पत्रांक २०५ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०६ "निरालंबणस्स य आययट्ठिया जोगा भवन्ति । सएणं लोभेणं संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ। परलाभं आणासायमाणे; अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलसमाणे, दुच्चं सुहसेज उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।' - उत्तराध्ययनसूत्र २९ ।३४ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०६
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