________________
पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १६२
१५५
(४) कुछ साधक श्रुत और वय दोनों से व्यक्त होते हैं । वे भी प्रयोजनवश या प्रतिमा स्वीकार करके एकाकी विहार या अभ्युद्यत विहार अंगीकार कर सकते हैं, किन्तु कारण विशेष के अभाव में उनके लिए भी एकचर्या की अनुमति नहीं है। प्रयोजन के अभाव में व्यक्त के एकाकी विचरण में कई दोषों की सम्भावनाएँ हैं। अकस्मात् अतिसार या वातादि क्षोभ से कोई व्याधि हो जाय तो संयम और आत्मा की विराधना होने की सम्भावना है, प्रवचन हीलना (संघ की बदनामी) भी हो सकती है।
वय व श्रुत से अव्यक्त साधक के एकाकी विचरण में दोष ये हैं - किसी गाँव में किसी व्यक्ति ने जरा-सा भी उसे छेड़ दिया या अपशब्द कह दिया तो उसके भी गाली-गलौज या मारामारी करने को उद्यत हो जाने की सम्भावना है। गाँव में कुलटा स्त्रियों के फंस जाने का खतरा है, कुत्तों आदि का भी उपसर्ग सम्भव है। धर्म-विद्वेषियों द्वारा उसे बहकाकर धर्मभ्रष्ट किये जाने की भी सम्भावना रहती है।
___ इसी सूत्र में आगे बताया गया है कि अव्यक्त साधु एकाकी विचरण क्यों करता है ? इससे क्या हानियाँ हैं ? किसी अव्यक्त साधु के द्वारा संयम में स्खलना (प्रमाद) हो जाने पर गुरु आदि उसे उपालम्भ देते हैं - कठोर वचन कहते हैं, तब वह क्रोध से भड़क उठता है, प्रतिवाद करता है - "इतने साधुओं के बीच में मुझे क्यों तिरस्कृत किया गया? क्या मैं अकेला ही ऐसा हूँ ? दूसरे साधु भी तो प्रमाद करते हैं ? मुझ पर ही क्यों बरस रहे हैं ? आपके गच्छ (संघ) में रहना ही बेकार है।" यों क्रोधान्धकार से दृष्टि आच्छन्न होने पर महामोहोदयवश वह अव्यक्त, अपुष्टधर्मा, अपरिपक्व साधु गच्छ से निकलकर उसी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जैसे समुद्र से निकलकर मछली विनष्ट हो जाती है। अथवा क्रिया प्रवचनपटुता, व्यावहारिक कुशलता आदि के मद में छके हुए अभिमानी अव्यक्त साधु की गच्छ में कोई जरा-सी प्रशंसा करता है तो वह फूल उठता है और कोई जरा-सा कुछ कठोर शब्द कह देता है या प्रशंसा नहीं करता या दूसरों की प्रशंसा या प्रसिद्धि होते देखता है तो भड़क कर गच्छ (संघ) से निकल कर अकेला घूमता रहता है। अपने अभिमानी स्वभाव के कारण वह अव्यक्त साधु जगह-जगह झगड़ता फिरता है, मन में संक्लेश पाता है, प्रसिद्धि के लिए मारामारा फिरता है, अज्ञजनों से प्रशंसा पाकर, उनके चक्कर में आकर अपना शुद्ध आचार-विचारविहार छोड़ बैठता है । निष्कर्ष यह है कि गुरु आदि का नियन्त्रण न रहने के कारण अव्यक्त साधु का एकाकी विचरण बहुत ही हानिजनक है।
गुरु के सान्निध्य में गच्छ में रहने से गुरु के नियन्त्रण में अव्यक्त साधु को क्रोध के अवसर पर बोध मिलता
१.
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक १९४ (ख) "अक्कोस-हरण-मारण धम्मब्भंसाण बालसुलभाणं।
लाभं मण्णइ धीरो जहुत्तरणं अभावंमि ॥" (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक १९४-१९५ (ख) "साहम्मिएहिं सम्मुजएहिं एगागिओअ जो विहरे ।
आयंकपउरयाए छक्कायवहं मि आवउड ॥१॥" एगागिअस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महब्वय तम्हा सविइज्जए गमणं ॥२॥