SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध दुर्यात (अनेक उपद्रवों से युक्त अतः अवांछनीय गमन) और दुष्पराक्रम (दुःसाहस से युक्त पराक्रम) है। कई मानव (अपरिपक्व साधक) (थोड़े-से प्रतिकूल) वचन सुनकर भी कुपित हो जाते हैं। स्वयं को उन्नत (उत्कृष्ट-उच्च) मानने वाला अभिमानी मनुष्य (अपरिपक्व साधक) (जरा से सम्मान और अपमान में) प्रबल मोह से (अज्ञानोदय से) मूढ़ (मतिभ्रान्त-विवेकविकल) हो जाता है। उस (अपरिपक्व मनःस्थिति वाले साधक) को एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्गजनित एवं रोग-आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएँ - पीड़ाएँ बार-बार आती हैं, तब उस अज्ञानी - अतत्त्वदर्शी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है, वे उसके लिए दुर्लंघ्य होती हैं। (ऐसी अव्यक्त अपरिपक्व अवस्था में - मैं अकेला विचरण करूँ), ऐसा विचार तुम्हारे मन में भी न हो। यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है। (अव्यक्त साधक द्वारा एकाकी विचरण में ये दोष उन्होंने केवलज्ञान के प्रकाश में देखे हैं)। अतः परिपक्व साधक उस (वीतराग महावीर के दर्शन में/संघ के आचार्य - गुरु या संयम) में ही एकमात्र दृष्टि रखे, उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायासक्ति से मुक्ति में मुक्ति माने, उसी को आगे (दृष्टिपथ में) रखकर विचरण करे, उसी का संज्ञान-स्मृति सतत सब कार्यों में रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। . मुनि (प्रत्येक चर्या में) यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र कर, मार्ग का सतत अवलोकन करते हुए (दृष्टि टिका कर) चले। जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे। वह भिक्षु (किसी कार्यवश कहीं) जाता हुआ, (कहीं से) वापस लौटता हुआ, (हाथ, पैर आदि) अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता (पसारता हुआ) समस्त अशुभप्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक् प्रकार से (हाथ-पैर आदि अवयवों तथा उनके रखने के स्थानों को) परिमार्जन (रजोहरणादि से) करता हुआ समस्त क्रियाएँ करे। विवेचन - इस सूत्र में अव्यक्त साधु के लिए एकाकी विचरण का निषेध किया गया है। वृत्तिकार ने अव्यक्त का लक्षण देकर उसकी चतुर्भंगी (चार विकल्प) बताई है। अव्यक्त साधु के दो प्रकार हैं - (१) श्रुत (ज्ञान) से अव्यक्त और (२) वय (अवस्था) से अव्यक्त। जिस साधु ने 'आचार प्रकल्प' का (अर्थ सहित) अध्ययन नहीं किया है, वह गच्छ में रहा हुआ श्रुत से अव्यक्त है और गच्छ से निर्गत की दृष्टि से अव्यक्त वह है, जिसने नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु तक का अध्ययन न किया हो। वय से गच्छागत अव्यक्त वह है, जो सोलह वर्ष की उम्र से नीचे का हो, परन्तु गच्छनिर्गत अव्यक्त वह कहलाता है, जो ३० वर्ष की उम्र से नीचे का हो। चतुर्भंगी इस प्रकार है - (१) कुछ साधक श्रुत और वय दोनों से अव्यक्त होते हैं, उनकी एकचर्या संयम और आत्मा की विघातक होती है। (२) कुछ साधक श्रुत से अव्यक्त, किन्तु वय से व्यक्त होते हैं, अगीतार्थ होने से उनकी एकचर्या में भी दोनों खतरे हैं। __ (३) कुछ साधक श्रुत से व्यक्त किन्तु वय से अव्यक्त होते हैं, वे बालक होने के कारण सबसे पराभूत हो सकते हैं।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy