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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
और सम्यक्चारित्र (इसी के अन्तर्गत तप) इन तीनों की सन्धि (समन्विति - मेल) को मोक्षमार्ग बताया था, क्योंकि भगवान् ने स्वयं इन तीनों की समन्विति को लेकर मोक्ष की साधना-सेवना की थी और अत्यन्त विकट-उत्कट कर्मों को काटने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र (समभाव रूप) के साथ दीर्घ तपस्या की थी। इसलिए ज्ञानादि तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है यह प्रतिपादन उन्होंने स्वयं अनुभव के बाद किया था। इससे दूसरे अर्थ की भी संगति बिठाई जा सकती है कि भगवान् महावीर ने अपने पूर्वकृत-कर्मों की सन्तति (परम्परा) का क्षय स्वयं दीर्घ तपस्याएँ करके तथा परीषहादि को समभावपूर्वक सहन करके किया है। यही (ज्ञानादित्रयपूर्वक तप का) उपदेश उन्होंने अपने शिष्यों को देते हुए कहा है - 'तम्हा बेमि णो णिहेज वीरियं' - मैंने ज्ञानादि त्रय की सन्धि के साथ तपश्चर्या द्वारा कर्म-संतति का क्षय करने का स्वयं अनुभव किया है, इसलिए मैं कहता हूँ - "ज्ञानादि त्रय एवं तपश्चरण आदि की साधना करने की अपनी शक्ति को जरा भी मत छिपाओ, जितना भी सम्भव हो सके अपनी समस्त शक्ति को ज्ञानादि की साधना के साथ-साथ तपश्चर्या में लगा दो।"१ तीन प्रकार के साधक
१५८. जे पुबुहाई णो पच्छाणिवाती। जे पुव्वुट्ठाई पच्छाणिवाती। जे णो पुबुट्ठाई णो पच्छाणिवातो। से वि २ तारिसए सिया जे पिरण्णाय लोगमण्णेसिति ।
एयं णिदाय मुणिणा पवेदितं - इह आणकंखी पंडिते अणिहे पुव्वावररायं जयमाणे सया सीलं सपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे।
१५८. (इस मुनिधर्म में प्रव्रजित होने वाले मोक्ष-मार्ग साधक तीन प्रकार के होते हैं) - (१) एक वह होता है - जो पहले साधना के लिए उठता (उद्यत) है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है, कभी गिरता नहीं। (२) दूसरा वह है - जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है। (३) तीसरा वह होता है - जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है।
जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और त्याग कर पुनः (पचन-पाचनादि सावध कार्य के लिए) उसी का आश्रय लेता या ढूँढता है, वह भी वैसा ही (गृहस्थतुल्य) हो जाता है।
___ इस (उत्थान-पतन के कारण) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनीन्द्र (तीर्थंकर). ने कहा - मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अतः स्नेह - आसक्ति से दूर रहे । रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय और ध्यान में) यत्नवान् रहे अथवा संयम में प्रयत्नशील रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण-अनुशीलन करे (लोक में सारभूत तत्त्वपरमतत्त्व को) सुनकर काम और लोभेच्छा। (माया झंझा) से मुक्त हो जाए।
१.
आचा० शीला० टीका पत्रांक १८९ इसके बदले चूर्णि में इस प्रकार पाठ है - से वि तारिसए चेवजे परिण्णात लोगमण्णेसति अकार लोवा जे अपरिण्णाय लोगं छज्जीवकायलोगं अणुएसति-अण्णेसति । पढिज्जइ य - लोगमणुस्सिते, परिण्णात पच्चक्खाय पुणरवि तदत्था लोगं अंस्सिता।" अकार का लोप होने से..... लोक (षड्जीवनिकाय लोक) का स्वरूप न जानकर पुनः उसी का अन्वेषण करता है। अथवा यह पाठ है - 'लोगमणुस्सिते', जिसका अर्थ होता है - षड्जीवनिकायरूप लोक को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से लोकप्रवाह छोड़कर पुनः उसके लिए लोक के आश्रित होना।" 'सपेहाए' के बदले 'संपेहाए' पाठ है। सपेहाए का अर्थ चूर्णिकार कहते हैं 'सम्मंपेक्ख' सदा शील का सम्यक् प्रेक्षण करके।