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________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र १५८ १४९ विवेचन – मुनिधर्म की स्थापना करते समय साधकों के जीवन में कई आरोह-अवरोह (चढ़ाव-उतार) आते हैं, उसी के तीन विकल्प प्रस्तुत सूत्र पंक्ति में प्रस्तुत किये हैं । वृत्तिकार ने सिंहवृत्ति और शृगालवृत्ति की उपमा देकर समझाया है। इसके दो भंग (विकल्प) होते हैं - (१) कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता (प्रव्रजित होता) है, और उसी वृत्ति पर अन्त तक टिका रहता है, वह 'पूर्वोत्थायी पश्चात् अनिपाती' है। (२) कोई सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है, किन्तु बाद में शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। यह 'पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती' नामक द्वितीय भंग है। पहले भंग के निदर्शन के रूप में गणधरों तथा धन्ना एवं शालिभद्र आदि मुनियों को लिया जा सकता है, जिन्होंने अन्त तक अपना जीवन तप, संयम में उत्थित के रूप में बिताया। दूसरे भंग के निदर्शन के रूप में नन्दिषेण, कुण्डरीक आदि साधकों को प्रस्तुत कर सकते हैं, जो पहले तो बहुत ही उत्साह, तीव्र, वैराग्य के साथ प्रव्रज्या के लिए उत्थित हुए, लेकिन बाद में मोहकर्म के उदय से संयमी जीवन में शिथिल और पतित हो गये थे। इसके दो भंग और होते हैं - (३) जो पूर्व में उत्थित न हो, बाद में श्रद्धा से भी गिर जाए। इस भंग के निदर्शन के रूप में किसी श्रमणोपासक गृहस्थ को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म के लिए तो तैयार नहीं हुआ, इतना ही नहीं, जीवन के विकट संकटापन्न क्षणों में सम्यग्दर्शन से भी गिर गया। (४) चौथा भंग है - जो न तो पूर्व उत्थित होता है, और न ही पश्चात्निपाती। इसके निदर्शन के रूप में बालतापसों को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए तैयार न हुए और जब उठे ही नहीं तो गिरने का सवाल ही कहाँ रहा। मुनि-धर्म के साधकों की उत्थित-पतित मनोदशा को जानकर भगवान् ने मुनि-धर्म में स्थिरता के लिए आठ मूलमन्त्र बताए, जिनका इस सूत्र में उल्लेख है - (१) साधक आज्ञाकांक्षी (आज्ञारुचि) हो, आज्ञा के दो अर्थ होते हैं - तीर्थंकरों का उपदेश और तीर्थंकर प्रतिपादित आगम। (२) पण्डित हो - सद्-असद् विवेकी हो। अथवा 'स पण्डितो यः करणैरखण्डितः' इस श्लोकार्ध के अनुसार इन्द्रियों एवं मन से पराजित न हो, अथवा 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः' गीता की इस उक्ति के अनुसार जो ज्ञानरूपी अग्नि से अपने कर्मों को जला डालता हो, उसे ही तत्त्वज्ञों ने पण्डित कहा है। (३) अस्त्रिह हो - स्निग्धता-आसक्ति से रहित हो। (४) पूर्वरात्रि और अपररात्रि में यत्नवान रहना। रात्रि के प्रथम याम को पूर्वरात्रि और रात्रि के पिछले याम को अपररात्र कहते हैं। इन दोनों यामों में स्वाध्याय, ध्यान, ज्ञान-चर्चा या आत्मचिनतन करते हुए अप्रमत्त रहना यतना 10 | आचा० शीला० टीका पत्रांक १९० दशवैकालिक सूत्र में कहा है - से पुव्वरत्तावररत्तकाले संपिक्खए अप्पगमप्पएणं ।' (चूलिका)२।११ - साधक पूर्वरात्रि एवं अपररात्रि में ध्यानस्थ होकर आत्मा से आत्मा का सम्यक् निरीक्षण करे।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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