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________________ १४६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध का कारण समझा जाता है । इस दृष्टि से कहा गया है कि परिग्रह से विरत व्यक्तियों में ही वास्तव में ब्रह्मचर्य का अस्तित्व है। जिसकी शरीर और वस्तुओं के प्रति मूर्छा-ममता होगी, न वह इन्द्रिय-संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन कर सकेगा, न वह अन्य अहिंसादि व्रतों का आचरणरूप ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, और न ही गुरुकुलवास रूप ब्रह्मचर्य में रह पाएगा, और न वह आत्मा-परमात्मा (ब्रह्म) में विचरण कर पाएगा। इसीलिए कहा गया कि परिग्रह से विरत मनुष्यों में ही सच्चे अर्थ में ब्रह्मचर्य रह सकेगा। - 'परमचक्खू' - परमचक्षु के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं - (१) जिसके पास परम-ज्ञानरूपी चक्षु (नेत्र) हैं वह परमचक्षु है, अथवा (२) परम - मोक्ष पर ही एकमात्र जिसके चक्षु (दृष्टि) केन्द्रित हैं, वह भी परमचक्षु है। ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक मुनि-धर्म की प्रेरणा १५७. आवंती केआवंती लोगंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती। सोच्चा वई मेधावी पंडियाणं निसामिया । समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते । जहेत्थ मए संधी झोसिते एवमण्णत्थ संधी दुग्झोसए भवति । तम्हा बेमि णो णिहेज ५ वीरियं । १५७. इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मूर्छा-ममता न रखने तथा उनका संग्रह न करने के कारण) ही अपरिग्रही हैं। मेधावी साधक (तीर्थंकरों की आगमरूप) वाणी सुनकर तथा (गणधर एवं आचार्य आदि) पण्डितों के वचन आचा० शीला० टीका पत्रांक १८८ आचा० शीला० टीका पत्रांक १८८ "सोच्चा वई मेहा (धा)वी' इस पंक्ति का चूर्णिकार अर्थ करते हैं - "सोच्चा - सुणित्ता, वयिं-वयणं, मेहावी सिस्सामंतणं। ......"अहवा सोच्चा मेहाविवयणं तितित्थगरवयणं,तं पडितेहिं भण्णमाणं गणहरादीहि णिसामिया।" अर्थात् - वचन सुनकर हे मेधावी ! अथवा मेधाविवचन-तीर्थंकरवचन सुनकर गणधरादि द्वारा हृदयंगम किए गए उन वचनों को, आचार्यों (पण्डितों) द्वारा उन वचनों को.....। 'आरिएहिं' के बदले किसी प्रति में 'आयरिएहिं' पाठ मिलता है, उसका अर्थ है - आचार्यों द्वारा । । ५. 'णो णिहेज' के बदले कहीं 'णो निण्हवेज', या णो णिहेज्जा' पाठ है। अर्थ समान है। चूर्णिकार कहते हैं - 'णिहणं ति वा गृहणं ति वा छायणं ति वा एगट्ठा' - निह्नवन (छुपाना), गूहन और छादन ये तीनों एकार्थक हैं।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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