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________________ १४५ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १५४-१५६ - ऐसा मैं कहता हूँ। मैंने सुना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत (स्थिर) हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित १५६. इस परिग्रह से विरत अनगार (अपरिग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न होने वाले क्षुधा-पिपासा आदि) परीषहों को दीर्घरात्रि - मृत्युपर्यन्त जीवन-भर सहन करे। जो प्रमत्त (विषयादि प्रमादों से युक्त) हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर समझ (देख) । अतएव अप्रमत्त होकर परिव्रजन-विचरण कर। (और) इस (परिग्रहविरतिरूप) मुनिधर्म का सम्यक् परिपालन कर। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - 'एतेसु चेव परिग्गहावंती' - इस वाक्य का आशय बहुत गहन है। वृत्तिकार ने इसका रहस्य खोलते हुए कहा है - परिग्रह (चाहे थोड़ा सा भी हो, सूक्ष्म हो) सचित्त (शिष्य, शिष्या, भक्त, भक्ता का) हो या अचित्त (शास्त्र, पुस्तक, वस्त्र, पात्र, क्षेत्र, प्रसिद्धि आदि का) हो, अल्प मूल्यवान् हो या बहुमूल्य, थोड़े से वजन का हो या वजनदार, यदि साधक की मूर्छा, ममता या आसक्ति इनमें से किसी भी पदार्थ पर थोड़ी या अधिक है तो महाव्रतधारी होते हुए भी उसकी गणना परिग्रहवान् गृहस्थों में होगी। इसका दूसरा आशय यह भी है - इन्हीं षड्जीवनिकायरूप सचित्त जीवों के प्रति या विषयभूत अल्पादि द्रव्यों के प्रति मूर्छा-ममता करने वाले साधक परिग्रहवान् हो जाते हैं । इस प्रकार अविरत होकर भी स्वयं विरतिवादी होने की डींग हांकने वाला साधक अल्पपरिग्रह से भी परिग्रहवान् हो जाता है । आहार-शरीरादि के प्रति जरा-सी मूर्छाममता भी साधक को परिग्रही बना सकती है, अत: उसे सावधान (अप्रमत्त) रहना चाहिए। 'एतदेवेगेसिं महब्भयं भवति' - इस वाक्य में 'एगेसिं' से तात्पर्य उन कतिपय साधकों से है, जो अपरिग्रहव्रत धारण कर लेने के बावजूद भी अपने उपकरणों या शिष्यों आदि पर मूर्छा-ममता रखते हैं । जैसे गृहस्थ के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही पदार्थों (सजीव-निर्जीव) के प्रति ममता-मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी सुरक्षा का भय बना रहता है । इसीलिए परिग्रह को महाभय रूप कहा है। अगर इस कथन का साक्षात् अनुभव करना हो तो महापरिग्रही लोगों के वृत्त (चरित्र) या वित्त (स्थिति) को देखो कि उन्हें अहर्निश जान को कितना खतरा रहता है। 'लोगवित्तं' - का एक अर्थ - लोकवृत्त - लोगों का व्यावहारिक कष्टमय जीवन है। तथा दूसरा अर्थ - लोकसंज्ञा से है। आहार, भय; मैथुन और परिग्रहरूप लोक-संज्ञा को भय रूप जानकर उसकी उपेक्षा कर दे। "एतेसु चेव बंभचेर' का आशय यह है कि प्राचीन काल में स्त्री को भी परिग्रह माना जाता था। यही कारण है कि भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की थी। ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह व्रत के अन्दर गतार्थ कर लिया गया था। ब्रह्मचर्य-भंग भी मोहवश होता है, मोह आभ्यन्तर परिग्रह में है। इस लए ब्रह्मचर्यभंग को अपरिग्रह व्रत-भंग आचा० शीला टीका पत्रांक १८७ आचा० शीला० टीका पत्रांक १८८ २.
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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