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________________ १४४ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध यहाँ पर छद्मस्थ श्रमण के लिए प्रथम और तृतीय अर्थ घटित होता है। समस्त कर्मक्षय करने वाले केवली के लिए द्वितीय अर्थ समझना चाहिए। इस प्रकार अप्रमत्त साधक संसार-भ्रमण से मुक्त हो जाता है। परिग्रहत्याग की प्रेरणा १५४. आवंती केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती । एतदेवेगेसिं महब्भयं भवति । लोगवित्तं च णं उवेहाए। एते संगे अविजाणतो। १५५. से सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति णच्चा पुरिसा ! परमचक्खू ! विपरिक्कम । एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि । से सुतं मे अज्झत्थं च मे - बंधपमोक्खो तुझऽज्झत्थेव । १५६. एत्थ विरते अणगारे दीहरायं तितिक्खते । पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए। एयं मोणं सम्म अणुवासेजासि त्ति बेमि। ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ १५४. इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रहवान् हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त (सजीव) या अचित्त (निर्जीव) वस्तु का परिग्रहण (ममतापूर्वक ग्रहण या संग्रह) करते हैं । वे इन (वस्तुओं) में (मूर्छा-ममता रखने के कारण) ही परिग्रहवान् हैं । यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधको ! असंयमी-परिग्रही लोगों के वित्त - धन या वृत्त (संज्ञाओं) को देखो। (इन्हें भी महान भय रूप समझो)। जो (परिग्रहजनित) आसक्तियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है। (जो अल्प, बहुत द्रव्यादि तथा शरीरादिरूप परिग्रह से रहित होता है उसे परिग्रह जनित महाभय नहीं होता।) १५५. (परिग्रह महाभय का हेतु है -) यह (वीतराग सर्वज्ञों द्वारा) सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध (ज्ञात) है और सुकथित है, यह जानकर, हे परमचक्षुष्मान् (एक मात्र मोक्षदृष्टिमान्) पुरुष ! तू (परिग्रह आदि से मुक्त होने के लिए) पुरुषार्थ (पराक्रम) कर। (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही (परमार्थतः) ब्रह्मचर्य होता है। 'सूवणीयं तिणच्चा' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'सुत अणुविचिंतेतिणच्चा'। अर्थ किया गया है -"सुतेण अणुविचिंतित्ता गणधरेहिं णच्चा" - अर्थात् - सूत्र से तदनुरूप चिन्तन करके गणधरों द्वारा प्रस्तुत है, इसे जान कर। 'अज्झत्थं' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'अज्झत्थितं'। अर्थ किया है - "ऊहितं गुणितं चिंतितं ति एकट्ठा।""अध्यात्मितं' का अर्थ होता है - ऊहित, गुणित या चिन्तित । यानी (मन में) ऊहापोह कर लिया है, चिन्तन कर लिया है,या गुणन कर लिया है।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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