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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना गुरु आदि के समक्ष नहीं करता, दूसरे (ज्येष्ठ साधु) के पूछने पर छिपाता है, अथवा उस दूसरे को अपने उस दोष में या पापिष्ठकर दोष में लपेटता है", यह दोहरा दोषसेवन है - एक अब्रह्मचर्य का, दूसरा असत्य का।' इस सूत्र का संकेत है कि प्रमाद या अज्ञानवश भूल हो जाने पर उसे सरलतापूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा करने से दोष की शुद्धि हो जाती है। यदि दोष को छिपाने का प्रयत्न किया जाता है तो वह दोष पर दोष दोहरा पाप करता है।
आरंभ-कषाय-पद
१५०. आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी एतेसु चेव आरंभजीवी । एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे २ रमति पावेहिं कम्मेहिं असरणं सरणं ति मण्णमाणे ।
१५१. इहमेगेसिं एगचरिया भवति। से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुरते बहुणडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसक्की' पलिओछण्णे उछितवादं पवदमाणे,'मा मे केइ अदक्खु' अण्णाण-पमाददोसेणं।
सततं मूढे धम्मं णाभिजाणति । अट्टा पया माणव' ! कम्मकोविया - जे अणुवरता अविजाए पलिमोक्खमाहु, आवटें अणुपरियटृति त्ति बेमि ।
॥पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ १५०. इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी (हिंसादि पापकर्म करके जीते) हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियोंकाम की कामनाओं) के कारण आरम्भजीवी हैं। '
अज्ञानी साधक इस संयमी (साधु) जीवन में भी विषय-पिपासा से छटपटाता हुआ (कामाग्नि प्रदीप्त होने के आचा० शीला० टीका पत्रांक १८२ में उद्धृत इसके बदले में चूर्णि में 'पतिप्पमाणे' पाठ मिलता है। जिसका अर्थ होता है - (विषय-पिपासा से) संतप्त छटपटाता हुआ। 'बहुमाए' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'बहुमायी', अर्थ किया गया है - कल्कतपसा च बहुमायी - मिथ्या या दम्भपूर्ण तपस्या के कारण अत्यन्त, कपटी, दम्भी या ढोंगी। 'बहुरते' का अर्थ चूर्णि में किया गया है 'बहुरतो उवचिणाति कम्मरयं' - बहुत से पाप कर्म रूप रज का संचय करता है।" शीलांकाचार्य ने अर्थ किया है - बहुरजाः, बहुपापो, बहुषु वाऽऽरम्भादिषु रतो बहुरतः । अर्थात् - बहुत पाप करने वाला, जो बहुत-से आरम्भादि पापों में रत रहता है, वह बहुरत है। 'आसवसक्की' का अर्थ चूर्णि में यों है - आसवेसु विसु (स)त्तो आसव (स)क्की। आसव पान करके अधिकतर सोया रहता है, या आश्रवों में आसक्त रहता है। अहवा आसवे अणुसंचरति' - या आस्रवों में ही विचरण करता है। 'पलिओछण्णे में पलिअ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं - "प्रलीयते भवं येन यच्च भूत्वा प्रलीयते'प्रलीयमुच्यते कम भृशं लीनं यदात्मनि"- जिससे जीव संसार में विशेष लीन होता है, जो उत्पन्न होकर लीन हो जाता है, उसे प्रलीय कहते हैं, वह है कर्म, जो आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। 'मणुयवच्चा माणवा तेसिं आमंत्रणं' - जो मनुज (मनुष्य) के अपत्य हैं, वे मानव हैं, यहाँ मानव शब्द का सम्बोधन में बहुवचन का रूप है। चूर्णि में 'कम्मअकोविता' पाठ है, अर्थ है - 'कहं कम्म बझति मुच्चति वा...' - कर्मकोविद (कर्म-पंडित) उसे कहते हैं, जो यह भलीभांति जानता है कि कर्म कैसे बंधते हैं, कैसे छटते हैं?