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पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र १५०-१५१
कारण) अशरण (सावद्य प्रवृत्ति) को ही शरण मान कर पापकर्मों में रमण करता 1
१५१. इस संसार के कुछ साधक (विषय- कषाय के कारण) अकेले विचरण करते हैं । यदि वह साधक अत्यन्त क्रोधी है, अतीव अभिमानी है, अत्यन्त मायी (कपटी) है, अति लोभी है, भोगों में अत्यासक्त है, नट की तरह बहुरूपिया है, अनेक प्रकार की शठता - प्रवंचना करता है, अनेक प्रकार के संकल्प करता है, हिंसादि आस्रवों में आसक्त रहता है, कर्मरूपी पलीते से लिपटा हुआ (कर्मों में लिप्त है, 'मैं भी साधु हूँ, धर्माचरण के लिए उद्यत हुआ हूँ', इस प्रकार से उत्थितवाद बोलता ( डींगें हांकता) है, 'मुझे कोई देख न ले' इस आशंका से छिप-छिपकर अनाचार-कुकृत्य करता है, (तो समझ लो ) वह यह सब अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ (करता है), वह मोहमूढ़ धर्म को नहीं जानता ( धर्म-अधर्म का विवेक नहीं कर पाता ) ॥
हे मानव ! जो लोग प्रजा (विषय- कषायों) से आर्त्त - पीड़ित हैं, कर्मबन्धन करने में ही चतुर हैं, जो आश्रवों (हिंसादि) से विरत नहीं हैं, जो अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे (जन्म-मरणादि रूप) संसार के भंवरजाल में बराबर चक्कर काटते रहते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - सूत्र १५१ में एकाकी विचरण करने वाले अज्ञानी साधक के विषय में कहा है। 'एगचरिया' साधक के लिए एकचर्या दो प्रकार की है - प्रशस्त और अप्रशस्त । इन दोनों प्रकार की एकचर्या के भी दो भेद हैं - द्रव्य-एकचर्या और भाव-एकचर्या । द्रव्यतः प्रशस्त एकचर्या तब होती है, जब प्रतिमाधारी, जिनकल्पी या संघादि के किसी महत्त्वपूर्ण कार्य या साधना के लिए एकाकी विचरण स्वीकार किया जाए। वह द्रव्यतः प्रशस्त एकचर्या होती है। जिस एकचर्या के पीछे विषय- लोलुपता हो, अतिस्वार्थ हो, दूसरों से पूजा-प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने का लोभ हो, कषायों की उत्तेजना हो, दूसरों की सेवा न करनी पड़े, दूसरों को अपने किसी दोष या अनाचार का पता न लग जाएइन कारणों से एकाकी विचरण स्वीकार करना अप्रशस्त - एकचर्या है। यहाँ पर एकचर्या के दोषों का विशुद्ध उद्घाटन हुआ है।
भाव से एकचर्या तभी हो सकती है, जब राग-द्वेष न रहे। यह अप्रशस्त नहीं होती । अतः भाव से, प्रशस्त एकचर्या ही होती है और यह तीर्थंकरों आदि को होती है ।
प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य से अप्रशस्त एकचर्या करने वाले की गलत रीति-नीति का निरूपण किया है। प्रशस्त एकचर्या अपनाने वाले में ऐसे दोष-दुर्गुणों का न होना अत्यन्त आवश्यक है । १ अप्रशस्त एकचर्या अपनाने वाला साधक अज्ञान और प्रमाद से ग्रस्त रहता है। अज्ञान दर्शनमोहनीय का और प्रमाद चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का सूचक है।
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'उत्थितवाद' पद के द्वारा एकचर्या करने वालों की उन मिथ्या उक्तियों का निरसन किया है जो यदा-कदा वे करते हैं - " मैं इसलिए एकाकी विहार करता हूँ कि अन्य साधु शिथिलाचारी हैं, मैं उग्र आचारी हूँ, मैं उनके साथ कैसे रह सकता हूँ? आदि" सूत्रकार का कथन है कि इस प्रकार की आत्म-प्रशंसा सिर्फ उसका वाग्जाल है । इस 'उत्थितवाद' को - स्वयं को संयम में उत्थित बताने की मायापूर्ण उक्ति मात्र समझना चाहिए।
मोक्ष के दो साधनसूत्रकृतांग सूत्र में बताये गये हैं ३ - विद्या (ज्ञान) और चारित्र । अविद्या मोक्ष का कारण
१. आचा० शीला० टीका पत्रांक १८२
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२. आचा० शीला० टीका पत्रांक १८२
आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खो सूत्रकृतांग श्रु० १, अ० १२ गा० ११
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