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________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १४९ १३७ पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे। एत्थ फासे पुणो पुणो। १४९. जिसे संशय (मोक्ष और संसार के विषय में संदेह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता। . जो कुशल (मोह के परिणाम या संसार के कारण को जानने में निपुण) है, वह मैथुन सेवन नहीं करता। जो ऐसा (गुप्तरूप से मैथुन का सेवन) करके (गुरु आदि के पूछने पर) उसे छिपाता है - अनजान बनता है, वह उस मूर्ख (काममूढ़) की दूसरी मूर्खता (अज्ञानता) है। ... उपलब्ध काम-भोगों का (उनके उपभोग के कटु-परिणामों का) पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी काम-भोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन (सेवन न करने) की आज्ञा-उपदेश दे, ऐसा मैं कहता हूँ। __ हे साधको ! विविध काम-भोगों (इन्द्रिय-विषयों) में गृद्ध - आसक्त जीवों को देखो, जो नरक-तिर्यंच आदि यातना-स्थानों में पच रहे हैं - उन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं। (वे इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत प्राणी) इस संसार प्रवाह में (कर्मों के फलस्वरूप) उन्हीं स्थानों का बारम्बार स्पर्श करते हैं, (उन्हीं स्थानों में पुनः-पुनः जन्मते मरते हैं)। . विवेचन - इस सूत्र में संशय को परिज्ञान का कारण बताया है। इसका आशय यह है कि संशय यहाँ शंका के अर्थ में है। जब तक किसी पदार्थ के विषय में संशय - जिज्ञासा नहीं होती, तब तक उसके सम्बन्ध में ज्ञान के नये-नये उन्मेष खुलते नहीं हैं.। जिज्ञासा-मूलक संशय मनुष्य के ज्ञान की अभिवृद्धि करने में बहुत बड़ा कारण है। भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गणधर गौतम स्वामी मन में जिज्ञासा-मूलक संशय उठते ही भगवान् के पास समाधान के लिए सविनय उपस्थित होते हैं। भगवती सूत्र में ऐसे जिज्ञासा-मूलक छत्तीस हजार संशयों का समाधान अंकित है। इतनी बड़ी ज्ञानराशि संशयों के निमित्त से प्राप्त हो सकी। न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' - संशय का आश्रय लिए बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन नहीं कर पाता - यह नीतिसूत्र जिज्ञासा-प्रधान संशय का समर्थन करता है। पश्चिमी दर्शनकार दर्शन का आरम्भ भी आश्चर्य के प्रति जिज्ञासा से मानते हैं। संसार जन्म-मरण के चक्र का नाम है, वह सुखकर है या दुःखकर? ऐसी संशयात्मक जिज्ञासा पैदा होगी तभी ज्ञपरिज्ञा से संसार की असारता का यथार्थ परिज्ञान (दर्शन) होगा, तभी प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उससे निवृत्ति होगी। जिसे संसार के प्रति संशयात्मक जिज्ञासा न होगी, उसे संसार की असारता का ज्ञान नहीं होगा, फलतः संसार में उसकी निवृत्ति नहीं होगी। _ 'बितिया मंदस्स बालया' - इस पद में बताया है कि साधक की पहली मूढ़ता यह है कि उसने गुप्तरूप से मैथुन-सेवन किया, उस पर दूसरी मूढ़ता यह है कि वह उसे छिपाता है, गुरु आदि द्वारा पूछने पर बताता नहीं है । इस सम्बन्ध में नागार्जुनीय वाचना में अधिक स्पष्ट पाठ है - "जे खलु विसए सेवई, सेवित्ता वा णालोएई, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविट्ठयरेण दोसेण उव-लिंपिज्जति।" - अर्थात् "जो साधक आचा० शीला टीका पत्रांक १८१
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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