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________________ १३६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध उस मोह (मिथ्यात्व-कषाय-विषय-कामना) से (उद्भ्रान्त होकर कर्मबन्धन करता है, जिसके फलस्वरूप) बार-बार गर्भ में आता है, जन्म-मरणादि पाता है। ___ इस (जन्म-मरण की परम्परा) में (मिथ्यात्वादि के कारण) उसे बारम्बार मोह (व्याकुलता) उत्पन्न होता है। विवेचन - ‘णेव से अंतो णेव से दूरे' - पद में कामनात्यागी के लिए कहा गया है - 'वह मोक्ष से तो दूर नहीं है और मृत्यु की सीमा के अन्दर नहीं है अर्थात् वह जीवन्मुक्त स्थिति में है।' ___ इस पद का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। -- एक नय के अनुसार वह कामनात्यागी सम्यक् दृष्टि पुरुष ग्रन्थि-भेद हो जाने के कारण अब कर्मों की सुदीर्घ सीमा में भी नहीं रहा और देशोनकोटा-कोटी कर्मस्थिति रहने के कारण कर्मों से दूर भी नहीं रहा। दूसरे नय के अनुसार यह पद केवलज्ञानी के लिए है। चार घाति-कर्मों का क्षय हो जाने से न तो वह संसार के भीतर है और भवोपग्राही चार अघातिकर्मों के शेष रहने के कारण न वह संसार से दूर है। तीसरे नय के अनुसार इसका अर्थ है - जो साधक श्रमणवेश लेकर विषय-सामग्री को छोड़ देता है, किन्तु अन्त:करण से कामना का त्याग नहीं कर पाता, वह अन्तरंग रूप में साधना के निकट - सीमा में नहीं है, और बाह्य रूप में साधना से दूर भी नहीं है, क्योंकि साधक के वेश में जो है। इस सूत्र में अज्ञानी की मोह-मूढ़ता का चित्रण करते हुए उसके तीन विशेषण दिये हैं - (१) बाल, (२) मन्द और (३) अविजान । बालक (शिशु) में यथार्थ ज्ञान नहीं होता, उसी तरह वह भी अस्थिर व क्षण-भंगुर जीवन को अजर-अमर मानता है, यह उसकी ज्ञानशून्यता ही उसका बचपन (बालत्व) है। सदसद्विवेक बुद्धि का अभाव होने से वह 'मन्द' है तथा परम अर्थ - मोक्ष का ज्ञान नहीं होने से वह 'अविजान' है। इसी अज्ञानदशा के कारण वह सुख के लिए क्रूर कर्म करता है, बदले में दुःख पाता है, बार-बार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता रहता है। संसारस्वरूप-परिज्ञान १४९. संसयं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिण्णाते भवति। जे छेये से सागारियं ण सेवे। कट्ट एवं अविजाणतो ' बितिया मंदस्स बालिया। लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेजा अणासेवणयाए त्ति बेमि। . (क) 'जे छये से सागारियं...' के बदले 'से सागारियण सेवए' पाठ है। अर्थ होता है - 'वह (साधक) अब्रह्मचर्य (मैथुन) - सेवन न करे।' (ख) नागार्जुनीय पाठान्तर इस प्रकार है - जे खलु विसए,सेवति,सेवित्ता नालोएति, परेण वा पुट्ठो णिण्हवति, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविट्ठसरएण वा (दोसेण), उवलिंपिज्जा। "जो विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना नहीं करता, दूसरे द्वारा पूछे जाने पर छिपाता है, अथवा उस दूसरे व्यक्ति को अपने दोष से या इससे भी बढ़कर पापिष्ठ दोष से लिप्त करता है।" 'अविजाणतो' के बदले चूर्णि में 'अवयाणतो' पाठ है। 'अव परिवर्जने अवयाणतिजं भणितं ण्हवति; अव' परिवर्जन अर्थ में है, अर्थात् मैं नहीं जानता, इस प्रकार पूछने पर इन्कार कर देता है, या पूछने पर अवज्ञा कर देता है। वृत्तिकार ने अर्थ किया है - अकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा। उस अकार्य का अपलाप (गोपन) करता हुआ या न बताता हुआ...."।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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