________________
पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र १४७-१४८ ॥
१३५
किया जाता है, वहाँ कामार्थक हिंसा है, जहाँ व्यापार-धन्धे, कल-कारखाने या कृषि आदि के लिए हिंसा की जाती है, वहाँ पर अर्थार्थक है और जहाँ दूसरे धर्म-सम्प्रदाय वालों को मारा-पीटा या सताया जाता है, उन पर अन्यायअत्याचार किया जाता है या धर्म के नाम से या धर्म निमित्त पशुबलि आदि दी जाती है, वहाँ धर्मार्थक हिंसा है। ये तीनों प्रकार की हिंसाएँ अर्थवान् और शेष हिंसा अनर्थक कहलाती हैं, जैसे - मनोरंजन, शरीरबल-वृद्धि आदि करने हेतु निर्दोष प्राणियों का शिकार किया जाता है, मनुष्यों को भूखे शेर के आगे छोड़ा जाता है, मुर्गे, सांड, भैंसे आदि परस्पर लड़ाए जाते हैं। ये सब हिंसाएँ निरर्थक हैं।
चूर्णिकार ने कहा है - 'आत-पर उभयहेतु अट्ठा, सेसं अणट्ठाए' - अपने, दूसरे के या दोनों के प्रयोजन सिद्ध करने हेतु की जाने वाली हिंसा-प्रवृत्ति अर्थवान् और निष्प्रयोजन की जाने वाली निरर्थक या अनर्थक कहलाती
'गुरू से कामा' का रहस्य यह है कि अज्ञानी की कामेच्छाएँ इतनी दुस्त्याज्य होती हैं कि उन्हें अतिक्रमण करना सहज नहीं होता, अल्पसत्त्व व्यक्ति तो काम की पहली ही मार में फिसल जाता है, काम की विशाल सेना से मुकाबला करना उसके वश की बात नहीं। इसलिए अज्ञजन के लिए कामों को 'गुरू' कहा गया है। २
'जतो से मारस्स अंतो' इस पंक्ति का भावार्थ यह भी है कि सुखार्थी जन काम-भोगों का परित्याग नहीं कर सकता, अतः काम-भोगों के परित्याग के बिना वह मृत्यु की पकड़ के भीतर होता है और चूंकि मृत्यु की.पकड़ के अन्दर होने से वह जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से घिरा रहता है, अत: वह सुख से सैकड़ों कोस दूर हो जाता
१४८. णेव से अंतो व से दूरे । से पासति फुसितमिव कुसग्गे पणुण्णं णिवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवितं मंदस्य अविजाणतो।
कूराणि कम्माणि बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति, मोहेण गब्भं मरणाइ एति। एत्थ मोहे पुणो पुणो।
१४८. वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा (पकड़) में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है।
वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारम्बार दूसरे जलकण पड़ने से) अस्थिर और वायु के झोंके से प्रेरित (प्रकम्पित) होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता-देखता है। बाल (अज्ञानी), मन्द (मन्दबुद्धि) का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (मोहवश) (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता।
(इसी अज्ञान के कारण) वह बाल - अज्ञानी (कामना के वश हुआ) हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ (दुःख को उत्पन्न करता है ।) तथा उसी दुःख से मूढ उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा (सुख के स्थान पर दुःख) को प्राप्त होता है।
१. २.
आचा० शीला० टीका पत्रांक १७९, आचा० नियुक्ति आचा० शीला० टीका पत्रांक १८० ३.
आचा० शीला० टीका पत्रांक १८०