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लोकसार-पञ्चम अध्ययन
प्राथमिक
आचारांग सूत्र का पंचम अध्ययन है - "लोकसार " ।
'लोक' शब्द विभिन्न दृष्टियों से अनेक अर्थों का द्योतक है। जैसे नामलोक - 'लोक' इस संज्ञा वाली कोई भी सजीव या निर्जीव वस्तु । स्थापनालोक - चतुर्दशरज्जू परिमित लोक की स्थापना (नक्शे में खींचा हुआ लोक का चित्र ) । द्रव्यलोक - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप षड्विध । भावलोक- औदयिकादि षड्भावात्मक या सर्वद्रव्य - पर्यायात्मक लोक या क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय-लोक। गृहस्थलोक आदि भी 'लोक' शब्द से व्यवहृत होते हैं ।
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यहाँ 'लोक' शब्द मुख्यत: प्राणि-लोक (संसार) के अर्थ में प्रयुक्त है । '
'सार' शब्द के भी विभिन्न दृष्टियों से अनेक अर्थ होते हैं - निष्कर्ष, निचोड़, तत्त्व, सर्वस्व, ठोस, प्रकर्ष, सार्थक, सारभूत आदि ।
सांसारिक भोग-परायण भौतिक लोगों की दृष्टि में धन, काम-भोग, भोग-साधन, शरीर, जीवन, भौतिक उपलब्धियाँ आदि सारभूत मानी जाती हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में ये सब पदार्थ सारहीन हैं, क्षणिक हैं, नाशवान् हैं, आत्मा को पराधीन बनाने वाले हैं, और अन्ततः दुःखदायी हैं। इसलिए इनमें कोई सार नहीं है।
अध्यात्म की दृष्टि में मोक्ष (परम पद), परमात्मपद, आत्मा (शुद्ध निर्मल ज्ञानादि स्वरूप), मोक्ष प्राप्ति के साधन - धर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, (अहिंसादि), तप, संयम, समत्व आदि भूत हैं।
नियुक्तिकार ने लोक के सार के सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर समाधान किया है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण मोक्ष है। ૨
आचा० शीला० टीका पत्रांक १७८
आचा० शीला० टीका पत्रांक १७८ · लोगस्ससारं धम्मो, धम्मंपि य नाणसारियं बिंति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं ॥ २४४ ॥
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- आचा० नियुक्ति आचा० टीका में उद्धृत