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लोकसार अध्ययन का अर्थ हुआ - समस्त जीव लोक के सारभूत मोक्षादि के सम्बन्ध में चिन्तन और कथन। लोकसार अध्ययन का उद्देश्य है - साधक लोक के सारभूत परमपद (परमात्मा, आत्मा और मोक्ष) के सम्बन्ध में प्रेरणा प्राप्त करे और मोक्ष से विपरीत आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, असयम, अज्ञान और मिथ्यादर्शन आदि का स्वरूप तथा इनके परिणामों को भलीभाँति जानकर इनका त्याग करे। . . इस अध्ययन का वैकल्पिक नाम 'आवंती' भी प्रसिद्ध है। इसका कारण यह है कि इस अध्ययन के उद्देशक १, २, ३ का प्रारम्भ 'आवंती' पद से ही हुआ है, अतः प्रथम पद के कारण इसका नाम 'आवंती' भी प्रसिद्ध हो गया है। लोकसार अध्ययन के ६ उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में भावलोक के सारभूत तत्त्व को केन्द्र में रखकर कथन किया गया है। प्रथम उद्देशक में मोक्ष के विपरीत पुरुषार्थ, काम और उसके मूल कारणों (अज्ञान, मोह, राग-द्वेष, आसक्ति, माया आदि) तथा उनके निवारणोपाय के सम्बन्ध में निरूपण है। दूसरे उद्देशक में अप्रमाद और परिग्रह-त्याग की प्रेरणा है। तीसरे उद्देशक में मुनिधर्म के सन्दर्भ में अपरिग्रह और काम-विरक्ति का संदेश है। चौथे उद्देशक में अपरिपक्व साधु की एकचर्या से होने वाली हानियों का एवं अन्य चर्याओं में कर्मबन्ध और उसका विवेक तथा ब्रह्मचर्य आदि का प्रतिपादन है। पांचवें उद्देशक में आचार्य महिमा, सत्यश्रद्धा, सम्यक्-असम्यक्-विवेक, अहिंसा और आत्मा के स्वरूप का वर्णन है। छठे उद्देशक में मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि के परित्याग का तथा आज्ञा निर्देश एवं परमआत्मा के स्वरूप का निरूपण है। यह अध्ययन सूत्र संख्या १४७ से प्रारम्भ होकर १७६ पर समाप्त होता है।
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