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चतुर्थ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १४३-१४६
चिन्तन भी कैसे हो सकता है ??
इसका एक अन्य भावार्थ यह भी है - "जिसे पूर्वकाल में बोधि-लाभ नहीं हुआ, उसे भावी जन्म में कैसे होगा? और अतीत एवं भविष्य में बोधि-लाभ का अभाव हो, वहाँ मध्य (बीच) के जन्म में बोधि-लाभ कैसे हो । सकेगा?"
'णिक्कम्मदंसी' का तात्पर्य निष्कर्म को देखने वाला है। निष्कर्म के पांच अर्थ इसी सूत्र में यत्र-तत्र मिलते हैं - (१) मोक्ष, (२) संवर, (३) कर्मरहित शुद्ध आत्मा, (४) अमृत और (५) शाश्वत । मोक्ष, अमृत और शाश्वत - ये तीनों प्रायः समानार्थक हैं । कर्मरहित आत्मा स्वयं अमृत रूप बन जाती है और संवर मोक्षप्राप्ति का एक अनन्य साधन है । जिसकी समस्त इन्द्रियों का प्रवाह विषयों या सांसारिक पदार्थों की ओर से हटकर मोक्ष या अमृत की ओर उन्मुख हो जाता है, वही निष्कर्मदर्शी होता है।
'साहिस्सामो णाणं - इन पदों का अर्थ भी समझ लेना आवश्यक है। वृत्तिकार तो इन शब्दों का इतना अर्थ करके छोड़ देते हैं - "सत्यवतां यज्ज्ञानं - योऽभिप्रायस्तदहं कथयिष्यामि।" २ त्रिकालदर्शी सत्यदर्शियों का जो ज्ञान/अभिप्राय है, उसे मैं कहूँगा। परन्तु 'साधिष्यामः' का एक विशिष्ट अर्थ यह भी हो सकता है - उस ज्ञान की साधना करूंगा, अपने जीवन में रमाऊँगा, उतारूँगा, उसे कार्यान्वित करूंगा।
॥चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
॥सम्यक्त्व : चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥
आचा० शीला० टीका पत्रांक १७६ आचा० शीला० टीका पत्रांक १७७