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________________ १२८ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध जताणं संथडदंसीणं आतोवरताणं अहा तहा लोगमुवेहमाणाणं । किमत्थि उवाही पासगस्स, ण विजति ? णत्थि त्ति बेमि । ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ १४३. मुनि पूर्व-संयोग (गृहस्थपक्षीय पूर्व-संयोग या अनादिकालीन असंयम के साथ रहे हुए पूर्व सम्बन्ध) का त्याग कर उपशम (कषायों और इन्द्रिय-विषयों का उपशमन) करके (शरीर - कर्मशरीर का) आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न करे और तब निष्पीड़न करे। (तप तथा संयम में पीड़ा होती है) इसलिए मुनि सदा अविमना (- विषयों के प्रति रति, भय, शोक से मुक्त), प्रसन्नमना, स्वारत ( - तप-संयमादि में रत), (पंच समितियों से - ) समित, (ज्ञानादि से - ) सहित, (कर्मविदारण में -) वीर होकर (इन्द्रिय और मन का) संयमन करे। अप्रमत्त होकर जीवन-पर्यन्त संयम-साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी (मोक्षार्थी) मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर (चलने में अति कठिन) होता है। (संयम और मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले शरीर का) मांस और रक्त (विकट तपश्चरण द्वारा) कम कर। यह (उक्त विकट तपस्वी) पुरुष संयमी, रागद्वेष का विजेता होने से पराक्रमी और दूसरों के लिए अनुकरणीय आदर्श तथा मुक्तिगमन के योग्य (द्रव्यभूत) होता है। वह ब्रह्मचर्य में (स्थित) रहकर शरीर या कर्मशरीर को (तपश्चरण आदि से) धुन डालता है। १४४. नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियन्त्रण - संयम का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः (मोहादि उदयवश) कर्म के स्रोत - इन्द्रियविषयादि (आदान स्रोतों) में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म-जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, (शरीर तथा परिवार आदि के -) संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह-अन्धकार में निमग्न वह बाल-अज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को (या विषयासक्ति के दोषों को) नहीं जान पाता। ऐसे साधक को (तीर्थंकरों की) आज्ञा (उपदेश) का लाभ नहीं प्राप्त होता। - ऐसा मैं कहता हूँ। १४५. जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का - ) पूर्व-संस्कार नहीं है और पश्चात् (भविष्य) का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा? (जिसकी भोगाकांक्षाएँ शान्त हो गई हैं।) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। (भोगाकांक्षा से निवृत्ति होने पर ही सावध आरम्भ – हिंसादि से निवृत्ति होती है) यह सम्यक् (सत्य) है, ऐसा तुम देखो - सोचो। (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर परिताप और दारुण दुःख पाता है। (अतः) पापकर्मों के बाह्य (- परिग्रह आदि) एवं अन्तरंग (- राग, द्वेष, मोह आदि) स्रोतों को बन्द करके इस संसार में मरणधर्मा प्राणियों के बीच तुम निष्कर्मदर्शी (कर्मयुक्त-अमृतदर्शी) बन जाओ। कर्म अपना फल अवश्य देते हैं, यह देखकर ज्ञानी पुरुष उनसे (कर्मों के बन्ध, संचय या आस्रव से) अवश्य ही निवृत्त हो जाता है। १४६. हे आर्यो ! जो साधक वीर हैं, पांच समितियों से समित - सम्पन्न हैं, ज्ञानादि से सहित हैं, सदा संयत
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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