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चतुर्थ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १४३-१४६
१२९ हैं, सतत शुभाशुभदर्शी (प्रतिपल जागरूक) हैं, (पापकर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर - सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चुके हैं, उन वीर समित, सहित, सदा यतनाशील, शुभाशुभदर्शी, स्वयं उपरत, लोक के यथार्थ द्रष्टा, ज्ञानियों के सम्यग् ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे।
(ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि (कर्मजनित नर-नारक आदि विशेषण) होती है या नहीं ? नहीं होती। - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - इस उद्देशक में सम्यक्चारित्र की साधना के सन्दर्भ में आत्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बद्ध बाह्य पदार्थों के संयोगों, मोहबन्धनों, आसक्तियों, रागद्वेषों एवं उनसे होने वाले कर्मबन्धों का त्याग करने की प्रेरणा दी गयी है।
'आवीलए पवीलए णिप्पीलए' - ये तीन शब्द मुनि-जीवन की साधना के क्रम को सूचित करते हैं। आपीड़न, प्रपीड़न और निष्पीड़न, ये क्रमशः मुनि-जीवन की साधना की तीन भूमिकाएँ हैं।
मुनि-जीवन की प्राथमिक तैयारी के लिए दो बातें अनिवार्य हैं, जो इस सूत्र में सूचित की गई हैं -
'जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं' - (१) मुनि-जीवन को अंगीकार करने से पूर्व के धन-धान्य, जमीन-जायदाद, कुटुम्ब-परिवार आदि के साथ बंधे हुए ममत्व-सम्बन्धों - संयोगों का त्याग एवं (२) इन्द्रिय और मन (विकारों) की उपशान्ति।
प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद मुनि साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है - प्रथम भूमिका दीक्षित होने से लेकर शास्त्राध्ययन काल तक की है। उसमें वह संयमरक्षा एवं शास्त्राध्ययन के हेतु आवश्यक तप (आयंबिलउपवास आदि) करता है । यह 'आपीड़न' है। . उसके पश्चात् दूसरी भूमिका आती है - शिष्यों या लघुमुनियों के अध्यापन एवं धर्म प्रचार-प्रसार की। इस दौरान वह संयम की उत्कृष्ट साधना और दीर्घ तप करता है। यह 'प्रपीड़न' है।
इसके बाद तीसरी भूमिका आती है - शरीरत्याग की। जब मुनि आत्म-कल्याण के साथ - कल्याण की साधना काफी कर चुकता है और शरीर भी जीर्ण-शीर्ण एवं वृद्ध हो जाता है, तब वह समाधिमरण की तैयारी में संलग्न हो जाता है। उस समय दीर्घकालीन (मासिक-पाक्षिक आदि) बाह्य और आभ्यन्तर तप, कायोत्सर्ग, उत्कृष्ट त्याग आदि की साधना करता है। यह 'निष्पीड़न' है।
साधना की इन तीनों भूमिकाओं में बाह्य - आभ्यन्तर तप एवं शरीर तथा आत्मा का भेद-विज्ञान करके तदनुरूप स्थूल शरीर के आपीड़न, प्रपीड़न और निष्पीड़न की प्रेरणा दी गयी है।'
यह तपश्चरण कर्मक्षय के लिए होता है, इसलिए कर्म या कार्मणशरीर का पीड़न भी यहाँ अभीष्ट है।
वृत्तिकार ने गुणस्थान से भी इन तीनों भूमिकाओं का सम्बन्ध बताया है। अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में कर्मों का आपीड़न हो, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिबादर गुणस्थानों में प्रपीड़न हो । तथा सूक्ष्म-सम्पराय-गुणस्थान में निष्पीड़न हो। अथवा उपशमश्रेणी में आपीड़न, क्षपकश्रेणी में प्रपीड़न एवं शैलेशी अवस्था में निष्पीड़न हो। २
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आयारो (मुनि नथमलजी) पृ० १७१ आचा० शीला० टीका पत्रांक १७४ । १७५