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________________ १२६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध यहाँ ध्यान, तपस्या एवं धर्माचरण के समय उपस्थित हुए उपसर्गों, कष्टों और परिग्रहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए कर्मशरीर को कृश, जीर्ण एवं दग्ध करने हेतु जीर्ण काष्ठ और अग्नि की उपमा दी गयी है। १ किन्तु साथ ही उसके लिए साधक से दो प्रकार की योग्यता की अपेक्षा भी की गयी है - (१) आत्मसमाधि एवं (२) अस्निहता - अनासक्ति की। इसलिए इस प्रकरण में 'आत्मा' से अर्थ है - कषायात्मारूप कर्मशरीर से। इसी सूत्र के 'धुणे सरीरं' वाक्य में इसी अर्थ का समर्थन मिलता है। अत: कर्मशरीर को कृश, प्रकम्पित एवं जीर्ण करना यहाँ विवक्षित प्रतीत होता है। इस स्थूल शरीर की कृशता यहाँ गौण है । तपस्या के साथ-साथ आत्मसमाधि और अनासक्ति रखते हुए यदि यह (शरीर) भी कृश हो जाय तो कोई बात नहीं। इसके लिए निशीथभाष्य की यह गाथा देखनी चाहिए "इंदियाणि कसाए य गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं ।" -३७५८ - एक साधु ने लम्बे उपवास करके शरीर को कृश कर डाला। परन्तु उसका अहंकार, क्रोध आदि कृश नहीं हुआ था। वह जगह-जगह अपने तप का प्रदर्शन और बखान किया करता था। एक अनुभवी मुनि ने उसकी यह प्रवृत्ति देखकर कहा - हे साधु ! तुम इन्द्रियों, विषयों, कषायों और गौरव-अहंकार को कृश करो। इस शरीर को कृश कर डाला तो क्या हुआ? कृश शरीर के कारण तुम प्रशंसा के योग्य नहीं हो। ___ 'विगिंच कोहं अविकंपमाणे' - इसका तात्पर्य यह है कि क्रोध आने पर मनुष्य का हृदय, मस्तिष्क व शरीर कम्पायमान हो जाता है, इसलिए अन्तर में क्रुद्ध - कम्पायमान व्यक्ति क्रोध को नहीं छोड़ सकता। वह तो एकदम कम्पायमान हुए बिना ही दूर किया जा सकता है। इससे पूर्व सूत्र में 'अस्निह' पद से रागनिवृत्ति का विधान किया था, अब यहाँ क्रोध-त्याग का निर्देश करके द्वेषनिवृत्ति का विधान किया गया है। २ 'दुक्खं च जाण""विष्फंदमाण' - इन वाक्यों में क्रोध से होने वाले वर्तमान और भविष्य के दुःखों को . ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़ने की प्रेरणा दी गयी है । क्रोध से भविष्य में विभिन्न नरकभूमियों में होने वाले तथा सर्पादि योनियों में होने वाले द:खों का दिग्दर्शन भी कराया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि क्रोधादि के परिणामस्वरूप केवल अपनी आत्मा ही दुःखों का अनुभव नहीं करती, अपितु सारा संसार क्रोधादिवश शारीरिक-मानसिक दुःखों से आक्रान्त होकर उनके निवारण के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है, इसे तू विवेक-चक्षुओं से देख! ___ 'विप्कंदमाणं' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - "अस्वतन्त्र रूप से इधर-उधर दुःख-प्रतीकार के लिए दौड़ते ___"जे णिव्वुडा पावेहि कम्मेहिं अणिदाणा' - यह लक्षण उपशान्तकषाय साधक का है। 'निव्वुडा' का अर्थ है - तीर्थंकरों के उपदेश से जिनका अन्त:करण वासित है, विषय-कषाय की अग्नि के उपशम से जो निवृत्त हैं - शान्त हैं, 'शीतीभूत हैं । पापकर्मों से अनिदान का अर्थ है - पाप कर्मबन्ध के निदान - (मूल कारण रागद्वेष) से रहित। .. ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ २. १. ३. आचारांग नियुक्ति गाथा २३४ आचा० शीला० टीका पत्रांक १७४ आचा० शीला० टीका पत्रांक १७३ आचा० शीला० टीका पत्रांक १७४
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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