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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १४०-१४२
१२५ हैं । एकाकी आत्मा की संप्रेक्षा (अनुप्रेक्षा) इस प्रकार करनी चाहिए -
एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक एको याति भवान्तरम् ॥ १॥ सदैकोऽहं, न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् ।।
न तं पश्यामि यस्याऽहं, नासौ भावीति यो मम ॥२॥ संसार एवाऽयमनर्थसारः, कः कस्य, कोऽत्र स्वजनः परो वा। सर्वे भ्रमन्ति स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा, न भवन्ति भूयः ॥३॥ विचिन्त्यमेतद् भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् ।
स्वकर्मभिर्धान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ ४॥ - आत्मा अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मान्तर में जाता है ॥१॥
- मैं सदैव अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं ऐसा नहीं देखता कि जिसका मैं अपने आपको बता सकूँ, न ही उसे भी देखता हूँ, जो मेरा हो सके ॥२॥
- इस संसार में अनर्थ की ही प्रधानता है। यहाँ कौन किसका है ? कौन स्वजन या पर-जन है ? ये सभी स्वजन और पर-जन तो संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए किसी समय (जन्म में) स्वजन और फिर पर-जन हो जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब न कोई स्वजन रहता है, न कोई पर-जन ॥३॥ ___- आप यह चिन्तन कीजिए कि मैं अकेला हूँ। पहले भी मेरा कोई न था और पीछे भी मेरा कोई नहीं है। अपने कर्मों (मोहनीयादि) के कारण मुझे दूसरों को अपना मानने की भ्रान्ति हो रही है। वास्तव में पहले भी मैं अकेला था, अब भी अकेला हूँ और पीछे भी मैं अकेला ही रहूँगा ॥४॥
सामायिक पाठ २ और आवश्यक सूत्र २ आदि में इस सम्बन्ध में काफी प्रकाश डाला गया है।
'कसेंहि अप्पाणं' - वाक्य में 'आत्मा' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - 'परव्यतिरिक्त आत्माशरीरं' दूसरों से अतिरिक्त अपना शरीर।४। १. आचारांग वृत्ति एवं नियुक्ति पत्रांक १७३ २. आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में भी इसी एकत्मभाव की सम्पुष्टि की है -
. एकः सदा शाश्वतिको माऽत्मा, विनिर्मलः साधिगम-स्वभावः।
बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥२६॥ - ज्ञान स्वभाव वाला शुद्ध और शाश्वत अकेला आत्मा ही मेरा है, दूसरे समस्त पदार्थ आत्मबाह्य हैं, वे शाश्वत नहीं हैं।
वे सब कर्मोदय से प्राप्त होने से अपने कहे जाते हैं, वस्तुत: वे अपने नहीं हैं, बाह्यभाव हैं। ३. आवश्यक सूत्र में संस्तार-पौरुषी में एकत्वभावना-मूलक ये गाथाएँ पढ़ी जाती हैं
एगोऽहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ । एवं अदीणमणसो अप्पाणमणुसासइ ॥११॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसं जुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥१२॥ ४. आचा० शीला० टीका पत्रांक १७३