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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १४०-१४२
१२३ जिन्होंने (प्राणिविघातकारी) दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान् होते हैं।) जो सत्त्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म (पलित) का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते हैं, अतएव वे सरल (ऋजु - कुटिलता रहित) होते हैं, (साथ ही वे) शरीर के प्रति अनासक्त या कषायरूपी अर्चा को विनष्ट किये हुए (मृतार्च) होते हैं, अथवा शरीर के प्रति अनासक्त होते हैं।
इस दुःख को आरम्भ (हिंसा) से उत्पन्न हुआ जानकर (समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिए) - ऐसा समत्वदर्शियों (सम्यक्त्वदर्शियों या समस्तदर्शियों - सर्वज्ञों) ने कहा है। . वे सब प्रावादिक (यथार्थ प्रवक्ता सर्वज्ञ) होते हैं, वे दुःख (दुःख के कारण कर्मों) को जानने में कुशल होते हैं। इसलिए वे कर्मों को सब प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं।
१४१. यहाँ (अर्हत्प्रवचन में) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित (शरीर एवं कर्मादि के प्रति) अनासक्त (स्नेहरहित) होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर (कर्मशरीर) को प्रकम्पित कर डाले। (तपश्चरण द्वारा) अपने कषायआत्मा (शरीर) को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मा - कर्म शरीर को (तप, ध्यान रूपी अग्नि से) शीघ्र जला डालता है।
१४२. यह मनुष्य-जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा (गहराई से निरीक्षण) करता हुआ साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे। (क्रोधादि से) वर्तमान में अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों को जाने । क्रोधी पुरुष भिन्नभिन्न नरकादि स्थानों में विभिन्न दुःखों (दुःख-स्पर्शों) का अनुभव करता है। प्राणिलोक को (दुःखप्रतीकार के लिए) इधर-उधर भाग-दौड़ करते (विस्पन्दित होते) देख !
जो पुरुष (हिंसा, विषय-कषायादि जनित) पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे अनिदान (बन्ध के मूल कारणों से मुक्त) कहे गये हैं।
इसलिए हे अतिविद्वान् ! (त्रिविद्य साधक !) तू (विषय-कषाय की अग्नि से) प्रज्वलित मत हो।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - इस उद्देशक में दुःखों और उनके कारणभूत कर्मों को जानने तथा उनका त्याग करने के लिए बाह्य आभ्यन्तर सम्यक् तप का निर्देश किया गया है। आगे के सूत्रों में सम्यक् तप की विधि बताई है। शरीर या कर्मशरीरकषायात्मा को प्रकम्पित, कृश या जीर्ण करने का निर्देश सम्यक् तप का ही विधान है।
- 'उवेहेणं' - इस पद में जो अहिंसादि धर्म से विमुख हैं, उनकी उपेक्षा करने का तात्पर्य है - उनके विधिविधानों को, उनकी रीति-नीति को मत मान, उनके सम्पर्क में मत आ, उनको प्रतिष्ठा मत दे, उनके धर्मविरुद्ध उपदेश को यथार्थ मत मान, उनके आडम्बरों और लच्छेदार भाषणों से प्रभावित मत हो, उनके कथन को अनार्यवचन समझ।
'से सव्वलोकंसिजे केइ विण्णू' - यहाँ सर्वलोक से तात्पर्य समस्त दार्शनिक जगत् से है। जो व्यक्ति धर्मविरुद्ध हिंसादि की प्ररूपणा करते हैं, उनके विचारों से जो भ्रान्त नहीं होता, वह अपनी स्वतन्त्र-बुद्धि से चिन्तनमनन करता है. हेय-उपादेय का विवेक करता है.सारे संसार के प्राणियों के द:ख का आत्मौपम्यदृष्टि से विचार करता १. आचा० शीला० टीका पत्रांक १७१