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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
उनको दूषित सिद्ध किया था और 'सकुण्डलं वा वयणं न वत्ति' - इस गाथा की पादपूर्ति क्षुल्लक मुनि द्वारा करवा कर अर्हत् धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की थी, वैसे ही धर्म-परीक्षा के लिए करना चाहिए। नियुक्ति में इसका विस्तृत वर्णन
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक सम्यक् तप : दुःख एवं कर्मक्षय-विधि
१४०. उवेहेणं बहिया य लोकं । से सव्वलोकंसि जे केइ विण्णू। अणुवियि २ पास णिक्खित्तदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयंति। णरा मुतच्चा धम्मविदु त्ति अंजू आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा।
एवमाहु सम्मत्तदंसिणो। ते सव्वे पावादिया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो।
१४१. इह आणाकंखी पंडिते अणिहे एगमप्याणं सपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमंत्थति एवं अत्तसमाहिते अणिहे।
१४२. विगिंच कोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं सपेहाए। दुक्खं च जाण अदुवाऽऽगमेस्सं। पुढो फासाइं च फासे। लोयं च पास विष्फंदमाणं५ । जे णिव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणिदाणा ते वियाहिता। तम्हाऽतिविजो णो पडिसंजलेज्जासि त्ति बेमि।
___तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ १४०. इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख (बाह्य) जो (दार्शनिक) लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में जो कोई विद्वान् हैं, उनमें अग्रणी विज्ञ (विद्वान्) है। तू अनुचिन्तन करके देख१. (क) आचारांग नियुक्तिगाथा २२८, २२९, २३०, २३१, (ख) उत्तरा० अ० २५ । ४२-४३ वृत्ति
(ग) आचा० शीला० पत्रांक १६९-१७० 'अणुवियि', 'अणुवीइ', 'अणुवितिय', 'अणुचिंतिय', 'अणुविय' आदि पाठान्तर मिलते हैं। 'सरीरं' के स्थान पर 'सरीरगं' शब्द मिलता है। 'पमंथति' का अर्थ चूर्णि में है-'भिसं मंथेति'-(अत्यन्त मथन करती है-जला देती है)। चूर्णि में 'विष्फंदमाणं' के स्थान पर 'विफुडमाणं' शब्द है। 'तम्हाऽतिविजो' के स्थान पर 'तम्हा तिविजा' पाठ भी मिलता है। चूर्णि में पठित 'तम्हा ति विज' पाठ अधिक युक्तिसंगत लगता है।