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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ९३४ - १३९
कर्मबन्धन से मुक्त होता है - निर्जरा कर लेता है। इस आश्चर्य को देखिए ।
'अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता' इस सूत्र का आशय बहुत गहन है। कई लोग अशुभ आस्रव - पापकर्म में पड़े हुए या विषय-सुखों में लिप्त प्रमत्त लोगों को देखकर यह कह देते हैं कि "ये क्या धर्माचरण करेंगे, ये क्या पाप कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत होंगे ?" शास्त्रकार कहते हैं कि अगर अनेकान्तवादात्मक सापेक्ष दृष्टिकोणमूलक उन आस्रव - परिस्रव के विकल्पों को वे हृदयंगम कर लें तो इस विज्ञान को प्राप्त हों, किसी निमित्त से अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र आदि की तरह आर्त्त राग-द्वेषोदयवश पीड़ित भी हो जाएँ अथवा शालिभद्र, स्थूलिभद्र आदि की तरह विषय - सुखों में प्रमत्त व मग्न भी हों तो भी तथाविध कर्म का क्षयोपशम होने पर धर्म-बोध प्राप्त होते ही जाग्रत होकर कर्मबन्धन के स्थान में धर्ममार्ग अपनाकर कर्मनिर्जरा करने लगते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं, यह बात पूर्ण सत्य है, इसलिए आगे कहा गया है- 'अहासच्चमिणं ति बेमि' । इस सिद्धान्त ने प्रत्येक आत्मा में विकास और कल्याण की असीम अनन्त सम्भावनाओं का उद्घाटन कर दिया है तथा किसी पापात्मा को देखकर उसके प्रति तुच्छ धारणा न बनाने का भी संकेत दिया है।
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कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ यों किया है - " आर्त्त और प्रमत्तं मनुष्य धर्म को स्वीकार नहीं करते । " हमारे विचार में यह अर्थ-संगत नहीं है, क्योंकि सामान्यत: आर्त प्राणी दुःख से मुक्ति पाने के लिए धर्म की शरण ही ग्रहण करता है। फिर यहाँ 'आस्रव - परिस्रव' का अनैकान्तिक दृष्टि-प्रसंग चल रहा है, जब आस्रव, परिस्रव बन सकता है, तो आर्त्त और प्रमत्त मनुष्य धर्म को स्वीकार कर शांत और अप्रमत्त क्यों नहीं बन सकता ? उसमें विकास व सुधार की सम्भावना स्वीकार करना ही उक्त वचन का उद्देश्य है - ऐसा हमारा विनम्र अभिमत है ।
'एगे वदंति अदुवा वि णाणी' - यह सूत्र परीक्षात्मक है। इसके द्वारा आस्रवों से बचने की पूर्वोक्त प्रेरणा की कसौटी की गयी है कि आस्रवों के त्याग की बात अन्य दार्शनिक लोग कहते- मानते हैं या ज्ञानी ही कहते- मानते हैं ? इसके उत्तर में आगे के सूत्रों में कुछ विरोधी विचारधारा के दार्शनिकों की मान्यता प्रस्तुत करके उनकी मान्यता क्यों अयथार्थ है, इसका कारण बताते हुए स्वकीय मत का स्थापन किया गया है। साथ ही हिंसा-त्याग क्यों आवश्यक ? इसके लिए एक अकाट्य अनुभवगम्य तर्क प्रस्तुत करके वदतो व्याघातन्यायेन उन्हीं के उत्तर से उनको निरुत्तर कर दिया गया है। २
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निष्कर्ष यह है कि यहाँ आगे के सभी सूत्र ' अहिंसा धर्म के आचरण के लिए हिंसा त्याग की आवश्यकता' के सिद्धान्त की परीक्षा को लेकर प्रस्तुत किये गये हैं। एक दृष्टि से देखा जाय तो हिंसारूप आस्रव के त्याग की आवश्यकता का सिद्धान्त स्थापित करके स्थालीपुलाकन्याय से शेष सभी आस्रवों (असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि) के त्याग की आवश्यकता ध्वनित कर दी गयी है।
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'नत्थेत्थ दोसो० ' 1- इस सूत्र के द्वारा सांख्य, मीमांसक, चार्वाक, वैशेषिक, बौद्ध आदि अन्य मतवादियों के हिंसा सम्बन्धी मन्तव्य में भिन्नवाक्यता, सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा का अस्वीकार, आत्मा के अस्तित्व का निषेध आदि दूषण ध्वनित किए गए हैं। हिंसा में कोई दोष नहीं है - इसे अनार्यवचन कहकर शास्त्रकार ने युक्ति से उनकी अनार्यवचनता सिद्ध की T । जैसे रोहगुप्त मन्त्री ने राजसभा में विभिन्न तीर्थिकों की धर्मपरीक्षा हेतु उन्हीं की उक्ति से
योगसार ६ । १८ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक १६८
आचा० शीला० टीका पत्रांक १६६