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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
वे ही पदार्थ विषय-सुखों से पराङ्मुख साधकों के लिए आध्यात्मिक चिन्तन का आधार बन कर परिस्रव - कर्मनिर्जरा के हेतु हैं - स्थान हैं और अर्हदेव, निर्ग्रन्थ मुनि, चारित्र, तपश्चरण, दशविध धर्म या दशविध समाचारी का पालन आदि जो कर्म-निर्जरा के स्थान हैं, वे ही असम्बुद्ध - अज्ञानी व्यक्तियों के लिए कर्मोदयवश, अहंकार आदि अशुभ अध्यवसाय के कारण, ऋद्धि-रस-साता के गर्ववश या आशातना के कारण आस्रव रूप - कर्मबन्ध स्थान हो जाते हैं। __इसी बात को अनेकान्तशैली से शास्त्रकार बताते हैं - जो व्रतविशेषरूप अनास्रव हैं, अशुभ परिणामों के कारण वे असम्बुद्ध - अज्ञानी व्यक्ति के लिए अपरिस्रव - आस्रवरूप हो जाते हैं, कर्मबन्ध के हेतु बन जाते हैं, उनकी दृष्टि और कर्मों की विषमता के कारण । इसी प्रकार जो अपरिस्रव हैं - आस्रवरूप - कर्मबन्ध के कारणरूपकिंवा कर्म से ग्रस्त वेश्या, हत्यारे, पापी या नारकीय जीव आदि हैं, वे ही सम्बुद्ध - ज्ञानवान् के लिए अनास्त्रवरूप हो जाते हैं, यानी वे उसके लिए आस्रवरूप न बनकर कर्मनिर्जरा के कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा है -
... यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः ।
तावन्तस्तविपर्यासात् निर्वाणंसुखहेतवः ॥ - जिस प्रकार के और जितने संसार-परिभ्रमण के हेतु हैं, उसी प्रकार के और उतने ही निर्वाण-सुख के हेतु
वास्तव में इस सूत्र के आधार पर आस्रव, परिस्रव, अनास्रव और अपरिस्रव को लेकर.चतुर्भगी होती है, वह क्रमशः इस प्रकार है -
(१) जो आस्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे आस्रव हैं। (२) जो आस्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे आस्रव हैं। (३) जो अनास्त्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं। (४) जो अनास्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं।
प्रस्तुत सूत्र में पहले और चौथे भंग का निर्देश है। दूसरा भंग शून्य है । अर्थात् आस्रव हो और निर्जरा न-होऐसा कभी नहीं होता। तृतीय भंग शैलेशी अवस्था प्राप्त (निष्प्रकम्पअयोगी) मुनि की अपेक्षा से है, उनको आस्रव नहीं होता, केवल परिस्रव (संचित कर्मों का क्षय) होता है । चतुर्थ भंग मुक्त आत्माओं की अपेक्षा से प्रतिपादित है। उनके आस्रव और परिस्रव दोनों ही नहीं होते। वे कर्म के बन्ध और कर्मक्षय दोनों से अतीत होते हैं।
इस सूत्र का निष्कर्ष यह है कि किसी भी वस्तु, घटना, प्रवृत्ति, क्रिया, भावधारा या व्यक्ति के सम्बन्ध में एकांगी दृष्टि से सही निर्णय नहीं दिया जा सकता। एक ही क्रिया को करने वाले दो व्यक्तियों के परिणामों की धारा अलग-अलग होने से एक उससे कर्म-बन्धन कर लेगा, दूसरा उसी क्रिया से कर्म-निर्जरा (क्षय) कर लेगा। आचार्य अमितगति ने योगसार (६।१८) में कहा है -
अज्ञानी बध्यते यत्र, सेव्यमानेऽक्षगोचरे ।
तत्रैव मुच्यते ज्ञानी पश्यतामाश्चर्यमीदृशम् ॥ इन्द्रिय-विषय का सेवन करने पर अज्ञानी जहाँ कर्मबन्धन कर लेता है, ज्ञानी उसी विषय के सेवन करने पर
आचा० शीला० टीका पत्रांक १६५