________________
चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र १३४-१३९
११७ १३४. जो आस्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव-कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, (इसी प्रकार) जो परिस्रव हैं, वे आस्रव हो जाते हैं, जो अनास्रवव्रत विशेष हैं, वे भी (अशुभ अध्यवसाय वाले के लिए) अपरिस्रव - कर्म के कारण हो जाते हैं, (इसी प्रकार) जो अपरिस्रव - पाप के कारण हैं, वे भी (कदाचित्) अनास्रव (कर्मबंध के कारण) नहीं होते हैं।
___ इन पदों (भंगों-विकल्पों) को सम्यक् प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक (जीव समूह) को आज्ञा (आगमवाणी) के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आस्रवों का सेवन न करे। ____ज्ञानी पुरुष, इस विषय में, संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए उत्सुक एवं विज्ञान-प्राप्त (हित की प्राप्ति और अहित से निवृत्ति के निश्चय पर पहुंचे हुए) मनुष्यों को उपदेश करते हैं।
जो आर्त अथवा प्रमत्त (विषयासक्त) होते हैं, वे भी (कर्मों का क्षयोपशम होने पर अथवा शुभ अवसर मिलने पर) धर्म का आचरण कर सकते हैं।
यह यथातथ्य-सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ।
जीवों को मृत्यु के मुख में (कभी) जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग (विषय-सुखों की) इच्छा द्वारा प्रेरित और वक्रता (कुटिलता) के घर बने रहते हैं। वे मृत्यु की पकड़ में आ जाने पर भी (अथवा धर्माचरण का काल/अवसर हाथ में आ जाने पर भी भविष्य में करने की बात सोचकर) कर्म-संचय करने या धनसंग्रह में रचे-पचे रहते हैं। ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं।
१३५. इस लोक में कुछ लोगों को उन-उन (विभिन्न मतवादों) का सम्पर्क होता है, (वे उन मतान्तरों की असत्य धारणाओं से बंधकर कर्मास्रव करते हैं और तब वे आयुष्य पूर्ण कर) लोक में होने वाले (विभिन्न) दुःखों का संवेदन - भोग करते हैं।
जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ़ अध्यवसायवश क्रूर कर्मों से प्रवृत्त होता है, वह (उन क्रूर कर्मों के फलस्वरूप) अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में पैदा होता है । जो गाढ़ अध्यवसाय वाला न होकर, क्रूर कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, वह प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता।
यह बात चौदह पूर्वो के धारक श्रुतकेवली आदि कहते हैं या केवलज्ञानी भी कहते हैं । जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतकेवली भी कहते हैं।
१३६. इस मत-मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद (विवाद) का प्रतिपादन करते हैं। जैसे कि कुछ मतवादी कहते हैं - "हमने यह देख लिया है, सुन लिया है,मनन कर लिया है, और विशेष रूप से जान भी लिया है, (इतना ही नहीं), ऊँची, नीची और तिरछी सभी दिशाओं में सब तरह से भली-भाँति इसका निरीक्षण भी कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत और सभी सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुँचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है, उन्हें प्राणहीन बनाया जा सकता है। इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि (इस प्रकार) हिंसा में कोई दोष नहीं है।"
यह अनार्य (पाप-परायण) लोगों का कथन है। १३७. इस जगत् में जो भी आर्य - पाप कर्मों से दूर रहने वाले हैं, उन्होंने ऐसा कहाँ है - "ओ हिंसावादियो!